Female Characters in Hindi Cinema: कहते हैं कि सिनेमा हमेशा से समाज का आईना रहा है। और इस आईने में कभी समाज की अच्छी तो कभी बुरी छवि दिखाई गई है। वहीं, सिनेमा के जरिये महिला किरदार को कभी सशक्त तो कभी बेहद कमजोर दिखाया गया है। देखा जाए तो फिल्मों में महिला किरदारों का दौर बदलता रहा है। कभी महिला पर्दे पर सहनशीलता और त्याग की मिसाल बनी तो कभी उसने समाज के सामने सवाल उठाये, उसका विरोध किया और अपनी पहचान खुद बनाई। देखा जाए तो ज्यादातर फिल्मों में एक महिला किरदार सिर्फ मनोरंजन करने और नाचने-गाने के लिए होता है। लेकिन इसके इतर जैसे जैसे समय बदला फिल्मी पर्दे पर महिलाओं के किरदारों का रूप भी बदला। अब वो सिर्फ एक अबला नारी नहीं, बल्कि एक सशक्त महिला के रूप में सामने आई, जो अपने फैसले भी खुद लेती है और अपनी खुद की पहचान भी बनाती है। आज इस आर्टिकल में हम बात करेंगे दशक दर दशक हिंदी सिनेमा में महिलाओं के बदलते किरदारों की।
1950–60 का शुरूआती दौर (Women Roles in Cinema during 1950s-1960s)

हिंदी सिनेमा में 1950–60 का दौर ऐसा दौर था जिसमें ज्यादातर महिला किरदार मजबूर, अबला, त्याग और सहनशीलता की मिसाल बन जाती थी। समाज उनका भविष्य, चरित्र और उनकी जिंदगी का ठेकेदार होता था। वहीं, इस दौर में रूढ़िवादी सोच और पितृसत्तात्मक समाज के बंधनों को तोड़ती हुई महिला भी दिखाई गई जो अपने अस्तित्व के लिए लड़ती है, आवाज उठाती है। इस दौर में ‘बंदनी’ (1963) की नर्स (अभिनेत्री नूतन द्वारा निभाया गया किरदार) जो एक कामकाजी महिला के रूप में अपनी छवि बनाने की कोशिश करती है और समाज के बंधनो को तोड़ते हुए अपनी एक पहचान बनाती है। वहीं ‘सीमा’ (1955) की विद्रोही लड़की (अभिनेत्री नूतन द्वारा निभाया गया किरदार) जो पुरुषों के इस समाज और उनके बनाये नियमों के बंधनों में नहीं बंधना चाहती है, वो अपने अस्तित्व के लिए आवाज उठाती है।
1970 कामकाजी महिलाओं का दशक (Women Roles in Hindi Films During 70s)

कहते हैं कि 70 का दशक हिंदी सिनेमा का सबसे सफल दशक रहा है। इस दौर में एक से बढ़कर एक फिल्में रिलीज हुईं जिनमें ‘शोले’, ‘दीवार’, ‘चुपके-चुपके’, ‘अभिमान’, ‘आंधी’ और ‘मौसम’ जैसी फिल्में आईं। इस दशक में कामकाजी महिला किरदारों पर भी जोर दिया गया, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण शोले की बसंती है। बसंती गांव की वो लड़की जो अकेली है पर अबला नहीं, वो अपना पेट पालने के लिए तांगा चलाती है लेकिन किसी के आगे हाथ नहीं फैलाती। वो खुद्दार है। वहीं, इस दशक में ‘अभिमान’ (1973) की सफल गायिका है जो अपने पति के साथ स्टेज पर गाना गाती है और ‘आंधी’ (1975) की एक राजनेता भी है। ये सब किरदार एक महिला के आत्मसम्मान, और त्याग दोनों की कहानी कहते हैं।
संघर्ष भरा 1980 का दशक (Women Roles in Cinema During 80s)

हिंदी सिनेमा में 1980 का दशक महिलाओं के संघर्ष और यथार्थ का दौर माना गया है। इस दौर में महिला किरदारों ने चुप रहकर सहने की बजाय हालातों का सामना किया। 1980 के दशक की फिल्मों में एक महिला को अपने पैरों पर खड़े होने का साहस करते हुए भी दिखाया गया। शबाना आजमी और स्मिता पाटिल की ‘अर्थ’ (1982) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जिसकी नायिका एक ऐसी महिला है, जो टूटे हुए रिश्ते और सामाजिक दबावों के बावजूद काम करके अपने आत्मसम्मान को बचाती है और अपनी एक पहचान बनाती है। वहीं, स्मिता पाटिल की ‘मिर्च मसाला’ (1987) की महिला सत्ता, भय और पुरुष प्रधान समाज के सामने के डंटकर खड़ी होती है। 80 के दशक में आई ये फिल्में उस दशक की महिलाओं के साहस, स्वाभिमान और गलत के विरोध में आवाज उठाने की कहानी कहती हैं।
1990 का दशक (Female Characters in Hindi Cinema During 90s)

फिल्मों के इतिहास में 90 का दशक हर सिने प्रेमी के लिए खास रहा। इस दौर में फिल्मों में दर्शकों को कॉमेडी, रोमांटिक, एक्शन, ड्रामा हर तरह की फिल्में देखने को मिलीं। महिला किरदारों के लिहाज से भी ये दशक बेहद महत्वपूर्ण रहा। इस दौर में आई पूजा भट्ट अभिनीत ‘जख्म’ (1998) में समाज और सोसाइटी से लड़ती एक अकेली मां का किरदार धार्मिक और सामजिक बंधनों के खिलाफ खड़ा दिखाई देता है, जो किसी भी कीमत पर अपने फैसलों और प्यार के लिए किसी के सामने झुकती नहीं है। वहीं, ‘खामोशी: द म्यूज़िकल’ (1996) की ऐनी जो एक सिंगर है और अपने मूक-बधिर माता-पिता की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर उठाती है, प्यार से धोखा मिलने और बिन ब्याही मां बनने के बाद भी उसके हौसले टूटे नहीं और उसने अपनी पहचान बनाई। अगर बात की जाए ‘1947 अर्थ’ (1998) की तो इसमें अपनी आजादी के लिए लड़ती महिलाओं के किरदारों को अपनी आजादी, अस्मिता और सुरक्षा की लड़ाई लड़ते हुए दिखाया गया है।
2000 से लेकर 2010 (Female Characters in Hindi Cinema During 2000-2010)

साल 2000 और 2010 का समय फिल्मों में कामकाजी यानी वर्किंग वुमन किरदारों का समय रहा है। इस दौर में महिला किरदारों को सिर्फ रिश्तों के इर्द-गिर्द अपनी पहचान बनाने तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि अपनी प्रोफेशनल पहचान बनाते हुए भी दिखाया गया। जैसे ‘वीर-जारा (2004) में रानी मुखर्जी का एक पाकिस्तानी वकील का किरदार जो सरहदों और सामाजिक दबावों के बीच इंसानियत और न्याय की आवाज बनता है। वहीं, ‘पेज 3’ की महिला पत्रकार ग्लैमर की बनावटी दुनिया का असली चेहरा दुनिया के सामने लाती है। और इन सबसे अलग ‘कॉर्पोरेट’ (2006) की निशिगंधा जो एक महत्वाकांक्षी और आत्मनिर्भर बिजनेस वुमन है जो अपने उद्योग जगत में मुनाफे और नैतिकता की लड़ाई के बीच पुरुष-प्रधान कॉर्पोरेट वर्ल्ड में अपनी एक अलग जगह बनाती है।
2010 और उसके बाद (Women Roles in Cinema During 2010 and Later On)

हिंदी सिनेमा में 2010 और उसके बाद का दौर महिला किरदारों के लिए एक क्रांति की तरह उभरा है, जिसमें महिलाएं कहानी की एकमात्र पात्र नहीं, बल्कि समाज से डायरेक्ट सवाल करती हैं। इस दौर की ‘नो वन किल्ड जेसिका’ (2011) में एक जर्नलिस्ट सरकार और सिस्टम के खिलाफ जाकर एक लड़की के परिवार को न्याय दिलाने के लिए सच की लड़ाई लड़ती है। वहीं, ‘पिंक’ (2016) में वर्किंग वुमन पुरुषों के सामने अपनी सहमति, आजादी और व्यक्तिगत सीमाओं को लेकर समाज की सोच को चुनौती देती हैं और बताती हैं कि ‘No Means No’ होता है। दूसरी तरफ, ‘पीकू’ (2015) एक अविवाहित लेकिन आत्मनिर्भर महिला का किरदार समाज को ये बताना चाहता है कि एक लड़की भी अपने पिता की जिम्मेदारी उठा सकती है और शादी करना ही एक महिला की जिंदगी का एकमात्र लक्ष्य नहीं होता है। तापसी पन्नू की ‘थप्पड़’ (2020) का महिला किरदार घरेलू हिंसा के खिलाफ एक साधारण लेकिन निर्णायक किरदार है जो ये बताता है कि पुरुषों को ये हक नहीं दिया गया है कि वो पत्नी या किसी महिला पर हाथ उठायें और फिर माफी मांग कर सब कुछ नॉर्मल करने की कोशिश करें। जबकि मर्दानी (2014–2019) में एक महिला पुलिस ऑफिसर अपराध और महिला सुरक्षा के मुद्दों पर बिना समझौते के कार्रवाई करती नजर आती है।
हिंदी सिनेमा में महिलाओं को अलग-अलग किरदारों में दिखाया गया है, कहीं अबला नारी तो कभी विद्रोही। वहीं, 110 सालों के इतिहास में महिलाओं के किरदारों को जितनी पहचान मिली है, क्या असलियत में अभी भी महिलाओं को समाज में पूरी तरह से वो दर्जा मिल पाया है?


