उत्तराखंड के पहले शिक्षक कांडपाल जिन्हें मिलेगा राष्ट्रीय जल पुरस्कार:13 साल तक बंजर खेत जोत चलाई मुहिम, सूख चुके 40 गांवों में लौटा पानी

उत्तराखंड के पहले शिक्षक कांडपाल जिन्हें मिलेगा राष्ट्रीय जल पुरस्कार:13 साल तक बंजर खेत जोत चलाई मुहिम, सूख चुके 40 गांवों में लौटा पानी

उत्तराखंड के जल प्रहरी मोहन चंद्र कांडपाल राज्य के पहले व्यक्ति हैं जिन्हें राष्ट्रीय जल पुरस्कार मिल रहा है। 18 नवंबर को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू खुद उन्हें ये पुरस्कार सौंपेंगी। कांडपाल पिछले 36 साल से पहाड़ों में जल संरक्षण, पौधारोपण और गांवों के सूख चुके जल स्रोतों को फिर से जिंदा करने का काम कर रहे हैं। दैनिक भास्कर एप से की गई बातचीत में कांडपाल कहते हैं- पानी बोओ, पानी उगाओ मुहिम के कारण आज 40 गांवों के नौले-धारों में पानी वापस लौटा है, और इन गांवों के पास से गुजरने वाली रिस्कन नदी पर भी प्रभाव पड़ा है। साथ ही उन्होंने बताया की कैसे उन्हें एहसास हुआ की जल संकट केवल एक विषय नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है… सवाल जवाब में पढ़िए पूरा इंटरव्यू… सवाल: जल संरक्षण के क्षेत्र में आपकी यात्रा कब से और कैसे शुरू हुई? जवाब: मैं 1990 से जल संरक्षण के कार्य में सक्रिय हूं। उसी वर्ष मैंने ग्रामीण क्षेत्र के एक विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यभार संभाला था। गांव के वातावरण, पहाड़ों के प्राकृतिक स्वरूप और पानी की गंभीर समस्याओं को समझते हुए मुझे एहसास हुआ कि जल संकट सिर्फ एक विषय नहीं, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है। 1990 से ही मैंने पौधारोपण, पहाड़ी क्षेत्रों में खाल-चाल निर्माण और ग्रामीणों को जागरूक करने जैसे काम शुरू कर दिए थे। समय के साथ यह काम एक साधना जैसा बन गया और आज लगभग 36 वर्ष से मैं लगातार इसे निभा रहा हूं। सवाल : इस अभियान को चलाने की आपको प्रेरणा कहां से मिली?
जवाब : मेरी प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत एक कक्षा 3 का छात्र रहा। एक दिन मैं क्लास में बच्चों को साफ-सफाई के बारे में बता रहा था कि रोज नहाना चाहिए, कपड़े धोने चाहिए, साफ रहना चाहिए। तभी उस बच्चे ने कहा, “मासब, पीने के लिए पानी नहीं है और आप नहाने-धोने की बात कर रहे हैं।” उस बच्चे के इसी एक वाक्य ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। तभी से यह बात मन में बैठ गई कि पानी की कमी को दूर करने के लिए कुछ ठोस करना ही होगा। यह घटना 1991-92 की है और इसी ने मुझे एक लंबे सफर की ओर प्रेरित किया। सवाल: पानी बोओ-पानी उगाओ अभियान की शुरुआत कैसे हुई?
जवाब : 1990 से 2012 तक हमने पहाड़ी ऊंचाई वाले क्षेत्रों में हजारों चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगाए, खालें बनाईं और कई प्रकार के संरक्षण कार्य किए। इसके बावजूद जल स्रोत लगातार सूख रहे थे। यहां तक कि पास की नदी भी समाप्ति के कगार पर थी। 2012 में एक गांव की बैठक में एक वृद्ध महिला ने कहा, “मास्टर, ये पेड़ लगाने और खाल बनाने से कुछ नहीं होगा। खेत बंजर हो गए हैं, लोग गांव छोड़कर दिल्ली जा रहे हैं। जब खेत ही नहीं जोते जाते तो पानी नीचे जाएगा ही नहीं।” इसी से मेरे मन में विचार आया कि जब तक खेत जोते नहीं जाएंगे, मिट्टी को हल नहीं मिलेगा, तब तक बारिश का पानी जमीन में नहीं उतरेगा। सवाल : ये अभियान किन क्षेत्रों में चला और इसका क्या प्रभाव हुआ?
जवाब : शुरुआत मैंने उन गांवों से की जहां 90 से 100 प्रतिशत तक खेती हो रही थी। मैंने देखा कि जहां हल चलता है, वहां नौले-धारे भी भरे मिलते हैं। फिर यह समझ धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र में फैल गई। इसके बाद पानी बोओ–पानी उगाओ अभियान रिस्कन नदी के आसपास के 40 गांवों में चलाया गया। शहरों में रहने वाले लोगों ने भी अपने बंजर पड़े खेतों को पुनर्जीवित करने में सहयोग दिया। लगातार काम करने के कारण 10 से 16 सालों के अंदर कई सूखे नौले-धारे पुनर्जीवित होने लगे। खेती दोबारा शुरू हुई और गांवों में जीवन लौटने लगा है। सवाल : इस लंबे अभियान में आपको कौन-कौन सी चुनौतियां मिलीं?
जवाब : 1990 के दशक में महिलाओं का घर से बाहर आकर ऐसे कार्यों में शामिल होना एक चुनौती था। लेकिन हमने 82 गांवों में महिला संगठनों का गठन किया और उनके सहयोग से पौधे लगाने, खाल बनाने और जल संरक्षण गतिविधियों का विस्तार किया। 2012 के बाद मैंने स्कूल के विद्यार्थियों को छुट्टियों में इन कार्यों से जोड़ा। शुरुआत में लोगों ने यह कहकर विरोध किया कि बच्चों को जंगल-जंगल क्यों ले जाया जा रहा है। लेकिन धीरे-धीरे सभी ने देखा कि बच्चे अपने गांव के जल संकट को समझ रहे हैं, नौलों के सूखने के कारण जान रहे हैं, बुजुर्गों से बातचीत कर रहे हैं। धीरे-धीरे विरोध कम हो गया और यह अभियान सामूहिक प्रयास बन गया। सवाल : अब तक कितनी खाल-चाल बनाई गई हैं और किन क्षेत्रों में पानी वापस आया है?
जवाब : रिस्कन नदी के आसपास के 40 गांवों में अब तक 5000 से अधिक खाल-चाल बनाई जा चुकी हैं। इनसे जमीन में पानी का पुनर्भरण काफी बढ़ा है। इसका परिणाम ये हुआ कि ग्राम सभा वलना, बिठोली, कांडे, गनोली सहित आसपास के कई क्षेत्रों में 27 जल स्रोत पुनर्जीवित हुए हैं। गनोली और कांडे जैसे गांव, जहां लोगों को पानी के लिए काफी परेशान होना पड़ता था, वहां अब पिछले कुछ सालों से नौलों में स्थायी रूप से पानी बना हुआ है। सवाल: इतनी बड़ी मुहिम आपने अकेले चलाई या फिर और लोगों का भी सहयोग रहा है?
जवाब :प्रारंभिक दौर में 1990 से 2005 तक पेड़ लगाने के लिए डॉ. ललित पांडे ने सहयोग किया था। 2012 में पानी बोओ- पानी उगाओ अभियान चलाया तो रिटायर्ड लोगों, नौकरी कर रहे बच्चों, से अपील की गई अपने घर में जन्म, शादी-विवाह या मृत्यु होने पर उनकी याद में खाव खोदें। धीरे-धीरे प्रारंभ में शुरू किया गया यह प्रयास अब एक मुहिम बन गया है। अब हर व्यक्ति पैसा देकर खाव बनाना चाहता है। लगभग 15 लाख के खाव रिटायर्ड लोगों ने और नौकरी करने वालों ने दिए हैं। संसाधन जनता द्वारा ही मिल रहे हैं, जो शहरों में रह रहे हैं या नौकरी कर रहे हैं। खाव बनाने के लिए अब पैसे की कोई कमी नहीं है। वीडियो सोर्स- कमल कैलाश हर्बोला

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