हर बार सर्दियों के मौसम में दिल्ली और उत्तर भारत के आसमान में जहरीली चादर बिछने वाला दृश्य छा जाता है। इस साल भी दिल्ली ‘गैस चैंबर’ बन चुकी है। विशेषज्ञों के अनुसार, यहाँ सांस लेना एक दिन में 20–25 सिगरेट पीने के बराबर है। देखा जाये तो यह महज़ पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य आपदा है। यह एक ऐसी त्रासदी है जो हमारे फेफड़ों, दिल और आने वाली पीढ़ियों की नसों तक में उतर चुकी है। एक दिन पहले इंडिया गेट पर स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन कर साफ हवा की मांग की। बाजारों में एयर प्यूरिफायर की बा़ढ़ आ चुकी है लेकिन प्रदूषण इतना है कि लोग अपने एयर प्यूरिफायर की जाली में भी धूल जमने के वीडियो साझा कर रहे हैं। यानि एयर प्यूरिफायर भी सांस लेने के लिए हाफ रहे हैं।
उधर, दिल्ली में रेखा गुप्ता सरकार कह रही है कि वह हर प्रयास कर रही है ताकि प्रदूषण को कम से कम किया जा सके। वहीं दिल्ली नगर निगम ने इस बार एंटी-स्मॉग गन, मैकेनिकल स्वीपर और सख़्त दंड की घोषणाएँ की हैं। पार्किंग शुल्क दोगुना करने से लेकर निर्माण-स्थलों पर निगरानी बढ़ाने तक कई उपाय किए जा रहे हैं। लेकिन इस सबके बावजूद हवा उतनी ही ज़हरीली बनी हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह सिर्फ़ मौसमी दिखावा है या वास्तव में सरकार के पास कोई दीर्घकालिक योजना भी है? दिल्ली के पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा का कहना है कि यह सब पिछली सरकार की गलतियों का नतीजा है। इस तरह सरकारें और एजेंसियाँ जिम्मेदारी एक-दूसरे पर डाल रही हैं।
वहीं, दिल्ली के नागरिक अब भी खुले में कचरा जलते दिखते हैं, बिना ढके निर्माण स्थल और सड़कों पर धूल उड़ाते ट्रक रोज़ की हकीकत हैं। किसान पराली जला रहे हैं, उद्योग उत्सर्जन बढ़ा रहे हैं, वाहन सड़कों पर भरे पड़े हैं। लेकिन इस “साझी गलती” का नतीजा अकेले जनता भुगत रही है। दमघोंटू हवा, जलती आंखें और बच्चों की कमज़ोर होती सांसें बड़ी मुश्किल स्थिति पैदा करते जा रहे हैं।
इसे भी पढ़ें: प्रदूषण पर वोट बैंक की राजनीति से नरक बनी दिल्ली
दूसरी ओर, सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में वियना से दिल्ली की उड़ान का दृश्य इस विभाजन को उजागर करता है— वियना का आसमान साफ़ और चमकदार, जबकि दिल्ली का दृश्य धुंधला और मद्धिम। यह तुलना सिर्फ़ कैमरे का फर्क नहीं, बल्कि सभ्यता और संवेदनशीलता का भी है।
वास्तविकता यह है कि तकनीकी उपाय, चाहे एंटी-स्मॉग गन हों या एयर प्यूरिफ़ायर, महज़ अस्थायी राहत दे सकते हैं। वे मूल समस्या का इलाज नहीं हैं। हमें ऊर्जा नीति, शहरी नियोजन और जन-व्यवहार, तीनों मोर्चों पर कठोर बदलाव की जरूरत है। जब तक प्रदूषण को विकास की “अनिवार्य कीमत” समझने की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक कोई मशीन हमारी हवा को साफ़ नहीं कर पाएगी। यह चेतावनी है कि इंसान ने अगर अपनी सांसों की क़ीमत नहीं समझी, तो आने वाली पीढ़ियाँ सिर्फ़ ऑक्सीजन नहीं, बल्कि जीवन की उम्मीद भी बोतलों में खोजेंगी।


