‘सवा मन घी’ का दीपक देख भड़का औरंगजेब:तोप से उड़वाया 7 मंजिला मंदिर; 70 साल में गोविंददेव वृंदावन से जयपुर पहुंचे

‘सवा मन घी’ का दीपक देख भड़का औरंगजेब:तोप से उड़वाया 7 मंजिला मंदिर; 70 साल में गोविंददेव वृंदावन से जयपुर पहुंचे

वह दौर था दमन का, जब आस्था के दीप बुझाने के लिए औरंगजेब की तलवार गरज रही थी। आज से हम शुरू कर रहे हैं एक अविस्मरणीय गाथा- ‘कृष्ण पलायन’। इस सीरीज में आप पढ़ेंगे, कैसे क्रूर बादशाह औरंगजेब की वजह से हजारों साल पुराने दिव्य कृष्ण विग्रह ब्रजभूमि छोड़कर चले गए। कुछ विग्रह 100-200 साल बाद लौट आए। लेकिन, ज्यादातर जहां गए, वहीं के हो गए और बन गए नए धाम के प्राण… कहानी से पहले ये जानना जरूरी है… पहले एपिसोड में आज पढ़िए, वृंदावन के ध्वस्त हुए सात मंजिला मंदिर के प्रभु गोविंददेव जी की अद्भुत यात्रा, जिसमें उन्हें बैलगाड़ी में घास के भीतर छिपाकर जयपुर पहुंचाया गया… वृंदावन में यमुना किनारे गोविंददेव मंदिर। संध्या आरती हो रही है। मृदंग, शंख और करताल की धुन के बीच गोविंद का नाम लेकर भक्त झूम रहे हैं। सात मंजिला मंदिर दीपकों की रोशनी में सोने-सा दमक रहा है। मंदिर के शिखर पर सवा मन यानी 50 किलो घी का विशाल दीप जल रहा है, जिसकी लौ आसमान चीर रही है। इसे कोसों दूर से देखा जा सकता है। मंदिर के सेवायत भावविभोर होकर बोले- “हे गोविंद! आपका प्रकाश तीनों लोक में फैल रहा है।” मुख्य सेवायत शिवराम गोस्वामी ने आंखें मूंदते हुए धीरे से कहा- “ये लौ घी से नहीं भक्ति से जलती है। जब-तक कृष्णभक्ति है, ये दीप नहीं बुझेगा।” आगरा का किला… बादशाह औरंगजेब आगरा के किले में कैद अपने पिता शाहजहां से मिलने आया था। पिता से ठंडी मुलाकात के बाद औरंगजेब किले की छत पर टहल रहा था। तभी दूर आसमान में एक तेज लौ दिखाई दी। उसने चौंककर पूछा- “ये क्या है? रात के अंधेरे में ये कैसी रोशनी है?” एक हिंदू सूबेदार आगे बढ़ा और सिर झुकाकर बोला- “जहांपनाह, ये रोशनी वृंदावन से आ रही है। वहां गोविंददेव जी का मंदिर है। इस मंदिर के लिए आपके दादाजान बादशाह अकबर ने काफी पैसा दिया था। मंदिर के शिखर पर एक विशाल दीपक जलता है। उसकी लौ यहां आगरा से भी दिखाई देती है।” औरंगजेब की आंखें तमतमा उठीं। दूर रोशनी की तरफ देखकर दांत पीसते हुए बोला- “अच्छा… तो ये वो मंदिर है जिस पर हमारे दादाजान ने लाखों खर्च किए थे। लेकिन हम अपने दादा जैसे नहीं हैं। हम खुदा के बंदे हैं। हमारी हुकूमत में काफिरों का मंदिर इतना बुलंद?” फिर पलटकर हिंदू सूबेदार को हुक्म दिया- “जाओ, उस मंदिर को जमीन के बराबर कर दो। हिंदोस्तान की कोई भी मस्जिद इतनी ऊंची नहीं है, तो बुतखाना इतना बुलंद कैसे हो सकता है।” हिंदू सूबेदार के चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। वो जानता था कि बादशाह का हुक्म टाला नहीं जा सकता। उसने सिर झुकाकर कहा- “जैसा बादशाह का हुक्म…।” मगर उसके भीतर से आवाज आई, “आस्था का दीप तलवार से नहीं बुझाया जा सकता।” फौज रवाना करने से पहले सूबेदार ने अपने एक खास आदमी को बुलाया और धीमी आवाज में आदेश दिया- “तुम्हें मुगल फौज से पहले ये खबर वृंदावन में गोविंददेव मंदिर तक पहुंचानी है। गोस्वामीजी को बता दो कि परसों सुबह होते ही फौज पहुंचेगी और मंदिर गिरा देगी।” वृंदावन… नगर की गलियां उस रात असामान्य रूप से शांत थीं। फिर भी कहीं मृदंग की मद्धम गूंज थी, कहीं कंठों से निकली हरिनाम की झंकार। लेकिन, मंदिर के भीतर अचानक हलचल मच गई थी। सूबेदार का आदमी मंदिर पहुंचा। उसके चेहरे पर थकान और डर दोनों थे। वह हांफते हुए बोला- “स्वामी जी, भयानक खबर है। बादशाह ने मंदिर गिराने का फरमान दिया है। परसों सुबह तक फौज यहां पहुंच जाएगी।” मंदिर के मुख्य सेवायत शिवराम गोस्वामी पलभर के लिए जैसे पत्थर हो गए। आसपास खड़े सेवायत हैरान थे। एक ने डरते हुए कहा- “अब क्या होगा महाराज!” शिवराम बोले- “हम बादशाह से नहीं लड़ सकते। भले ही मंदिर न बच पाए, लेकिन गोविंददेव जी का विग्रह तो बचाया जा सकता है। हमारे पास सिर्फ आज रात का समय है। विग्रह को सुरक्षित स्थान पर ले जाना होगा।” अब मुश्किल ये थी कि विग्रह नगर से बाहर कैसे निकाला जाए? एक सेवायत बोला- “गोविंद जी को झोली में छिपाकर ले चलें…?” शिवराम ने कहा- “गोविंद जी इतने छोटे नहीं हैं कि झोली में आ जाएं।” किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। शिवराम गोस्वामी आंख मूंदकर कुछ सोच रहे थे। अचानक उनका ध्यान टूटा और एक सेवायत से बोले- “बैलगाड़ी का इंतजाम करो। उसमें हरा चारा लाद दो। घास के भीतर गोविंद जी को छिपाया जाएगा और हम सब चरवाहे के वेश में चलेंगे।” सभी एक-दूसरे की ओर देखने लगे। निराशा में जैसे एक आस जगी हो। विग्रह का वृंदावन से निकलना… रात का दूसरा पहर बीत चुका था। पूरा वृंदावन गहरी नींद में था। मंदिर के पीछे से बैलगाड़ी धीरे-धीरे निकली। पीछे हरी घास का चारा, चारे के भीतर गोविंददेव जी का विग्रह। शिवराम गोस्वामी गाड़ी के साथ चल रहे थे। उनके पीछे अन्य सेवायत थे। टोली मुगल चौकी पार कर रही थी। कई सिपाही सोए हुए थे, लेकिन एक जाग रहा था। उसकी तलवार रात के अंधेरे में भी चमक रही थी। सिपाही ने जोर से आवाज दी- “रुको…!” लेकिन डर को दबाते हुए शिवराम ने गाड़ीवान से कहा- “चलते रहो, पलटकर मत देखना। सब ठाकुरजी पर छोड़ दो।” सिपाही ने भी दोबारा आवाज नहीं दी और बैलगाड़ी रात के अंधेरे में गुम हो गई। अगली सुबह औरंगजेब की फौज वृंदावन पहुंची। गोविंददेव मंदिर पर तोपें दागी जाने लगीं। मंदिर हिला और सात मंजिला मंदिर का शिखर भरभराकर ढह गया। तीन मंजिलें तोड़ दी गईं। वृंदावन के लोगों की आंखों में आंसू थे और मन में द्वंद्व कि हमारे गोविंद जी का क्या होगा? हाथ जोड़े सभी भक्त एक ही प्रार्थना कर रहे थे- “प्रभु कोई लीला करो, हमसे ये देखा नहीं जाता।” उन्हें क्या पता कि प्रभु पहले ही लीला कर चुके हैं। शिखर तोड़ने के बाद सिपाही मंदिर में घुसे। गर्भगृह का दरवाजा तोड़ा और मशालें जलाईं। देखा तो गोविंददेव जी का विग्रह गायब था। सिपाही चिल्लाया- “हुजूर, यहां मूर्तियां नहीं हैं। गर्भगृह खाली है। लगता है काफिर मूर्तियां ले गए।” दूसरा सिपाही बोला- “कहां तक बचेंगे? खुदा के बंदों की चाबुक उन्हें ढूंढ निकालेगी।” राधाकुंड में 13 साल… वृंदावन से करीब 25 किलोमीटर दूर, राधाकुंड। शिवराम गोस्वामी ने अपने साथियों से कहा- “वो दूर जंगलों के बीच एक टूटा-फूटा घर दिखाई दे रहा है। गोविंददेव जी वहीं विराजेंगे। यहां आसपास बड़े-बड़े पेड़ हैं, झाड़-झंखाड़ है। सिर्फ ग्वाले ही आते हैं यहां। मुगलों को इस जगह की भनक नहीं लगेगी।” गोविंददेव करीब 13 साल तक राधाकुंड के पास विराजमान रहे। किसी तरह औरंगजेब को इसकी खबर मिल गई। ये बादशाह के लिए एक हार थी। उसे ये बात चुभ गई। औरंगजेब अपने सूबेदार को फटकारते हुए बोला- “लानत है तुम पर… काफिर बचकर निकल गए। बुतपरस्ती जारी है। जाओ और देखो वो मूर्ति किसकी है। ऊंचे वाले गोविंददेव की हो, तो उसे तोड़ दो। उसके टुकड़े मेरे पास लाओ। जिसने मूर्ति बचाने की गुस्ताखी की, उसका सिर कलम करके मेरे सामने लाओ।” कामवन, राजस्थान ये खबर भी किसी तरह सिपाहियों के पहुंचने से पहले गोस्वामी को पता चल गई। आमेर रियासत के मिर्जा राजा जय सिंह के छोटे बेटे कीरत सिंह को खबर भेजी गई। उस वक्त कामवन यानी कामां की जागीर उनके पास थी। कीरत सिंह ने शिवराम गोस्वामी को कहलवाया कि गोविंददेव जी को लेकर वहां आ जाएं। सभी विग्रह लेकर कामवन पहुंच गए। मुगल सिपाहियों को राधाकुंड में कुछ नहीं मिला। औरंगजेब को खबर दी गई, “जहांपनाह, काफिर हमारे पहुंचने से पहले ही जा चुके थे।” औरंगजेब दांत पीसकर रह गया। उसने अपने विश्वासपात्र जासूसों को आदेश दिया कि किसी भी कीमत पर उस मूर्ति का पता लगाओ। पता लगाने वाले को जागीरदार बना दिया जाएगा। गोविंददेव के विग्रह पर खतरा बढ़ता जा रहा था, लेकिन इस बार सेवायत अकेले नहीं थे। कामवन के जाट भी उनके साथ थे। सरदार चूड़ामन जाट ने कई साल तक विग्रह की रक्षा की। आमेर रियासत से भी गोविंद जी की सेवा में नजराना आता रहा। मुसीबत के उस वक्त में भी भगवान को रोज आठ बार भोग लगता था। कामवन से आमेर… जब तक औरंगजेब का आतंक खत्म नहीं हो गया, गोविंद जी कामवन यानी कामां में ही रहे। 1707 में बादशाह की मौत के बाद गोविंद जी ने सांगानेर के पास गोविंदपुरा गांव में अपना पड़ाव डाला। 16 बैलगाड़ियों के साथ गोविंद जी गोविंदपुरा पहुंचे। सबसे आगे गोविंद जी की बैलगाड़ी थी। उनके पीछे सेवायत और फिर आमेर (अब जयपुर) के घुड़सवार सिपाही चल रहे थे। गोविंदपुरा आमेर रियासत का हिस्सा था, लेकिन महल से दूर था। सवाई राजा जय सिंह (ये मिर्जा राजा जय सिंह के पोते थे) चाहते थे कि गोविंददेव उनके नजदीक ही विराजमान हों। करीब 7 साल बाद राजा की इच्छा पूरी हुई। 1714 में गोविंददेव आमेर किले के नजदीक कनक घाटी में विराजमान हुए। किले तक जाने वाले रास्ते की दाहिनी तरफ मानसागर और पहाड़ियों के बीच मंदिर बना। भक्तों में ऐसा उल्लास था कि मानो रियासत में महीनों से कोई त्योहार चल रहा हो। राजा जय सिंह भी अब निश्चिंत थे। एक दिन गोविंददेव जी ने राजा को सपने में दर्शन दिए। उन्होंने राजा से कहा- “मुझे अकेला मत छोड़। मुझे तेरे साथ रहना है। मुझे अपने पास लेकर चल। अपने साथ रख।” राजा हड़बड़ाकर नींद से उठे। उन्होंने उसी समय दीवान विद्याधर भट्टाचार्य को बुलवाया। विद्याधर शिल्पकार भी थे। राजा ने उन्हें महल में कोई ऐसी जगह ढूंढने को कहा जहां गोविंददेव जी का मंदिर बन सके। ऐसी जगह जो सोते-जागते हमेशा राजा की नजरों के सामने रहे। राजा ने सपने की बात राजगुरु रत्नाकर पौंडरी को भी बताई। राजगुरु ने सपने का रहस्य राजा को समझाया- “ईश्वर भक्तों से ऐसे ही बात करता है राजन। ये एक इशारा है। सपने की बात को जल्द से जल्द साकार किया जाना चाहिए।” विद्याधर भट्टाचार्य ने सुझाव दिया- “महाराज, क्यों न गोविंददेव जी को सूर्य महल में विराजमान किया जाए? सुबह उठते ही आपको गोविंददेव जी के दर्शन होंगे।” जय सिंह को सुझाव पसंद आया। गोविंददेव सूर्य महल में विराजमान हुए। जयपुर शहर में मासिक उत्सव का ऐलान हुआ। राजा ने आदेश दिया- “हाथी-घोड़े सजाकर प्रभु के स्वागत में लगाया जाए। रियासत में कोई भूखा न रहे। आसपास की रियासतों में न्योता भेजा जाए। शंख, मृदंग और करताल से रियासत की गलियां गूंजती रहें।” आमेर में दीवाली-सा माहौल था। आठों पहर भंडारे चलते रहे। बड़े-बड़े व्यापारी, सेठ-साहूकार और आम लोग इस उत्सव में शामिल हुए। गोविंद जी को सैकड़ों तोपों की सलामी दी गई। राजा ने एक और ऐलान किया। ये भक्ति की पराकाष्ठा थी। राजा ने भरे दरबार में धीरे लेकिन साफ शब्दों में कहा- “आज से इस रियासत का राजा मैं नहीं, गोविंददेव जी होंगे। मैं उनका दीवान रहूंगा। दस्तावेजों पर उनका नाम चलेगा। दरबार में मुख्य स्थान उनके लिए खाली रहेगा।” ये बात आग की तरह फैल गई। “राजा ने राजपाट त्याग दिया, सब गोविंद को सौंप दिया।” लोग बिना पगड़ी-चप्पल पहने महल की ओर दौड़ पड़े। उस भाव ने जैसे जनता को मोह लिया था। राजा ने खुद को पीछे करके भगवान को आगे कर दिया था। सवाई राजा ने गोविंददेव जी को साष्टांग दंडवत किया और बोले- “प्रभु, आपका शिखर गिरा दिया गया, पर आपकी आस्था को कोई नहीं गिरा सका। हुकूमतें मिट जाएंगी, तलवारें जंग खा जाएंगी, लेकिन आपकी भक्ति हमेशा रहेगी। आप हमेशा रहेंगे।” जयपुर के सिटी पैलेस में गोविंददेव मंदिर आज भी उस दिन का गवाह है, जब तोप-तलवारें हारीं और आस्था-विश्वास जीते। अब पढ़िए वृंदावन में कैसे बना था गोविंदवेव मंदिर स्टोरी एडिट- कृष्ण गोपाल ग्राफिक्स- सौरव कुमार **** रेफरेंस मथुरा-वृंदावन के वृहद हिंदू मंदिर: डॉ चंचल गोस्वामी। ब्रज विभाव: संपादक गोपाल प्रसाद व्यास। द कंट्रीब्यूशन ऑफ मेजर हिंदू टेंपल्स ऑफ मथुरा एंड वृंदावन: डॉ चंचल गोस्वामी। औरंगजेबनामा: संपादक डॉ अशोक कुमार सिंह। ब्रज के धर्म संप्रदायों का इतिहास: प्रभुदयाल मीतल। सनातन के संरक्षण में कछवाहों का योगदान: डॉ सुभाष शर्मा-जितेंद्र शेखावत। गोविंद गाथा: नंदकिशोर पारिख। लक्ष्मी नारायण तिवारी, सचिव- ब्रज संस्कृति शोध संस्थान, वृंदावन। जयपुर इतिहास के जानकार- जितेंद्र शेखावत, संतोष शर्मा, सिया शरण लश्करी, प्रो देवेंद्र भगत (राजस्थान यूनिवर्सिटी) (कहानी को रोचक बनाने के लिए क्रिएटिव लिबर्टी लेकर लिखा गया है।)

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