‘तू मेरी मैं तेरा, मैं तेरा तू मेरी’ एक ऐसी फिल्म है, जो साफ तौर पर आज की जनरेशन की प्रेम कहानी को 90 के दशक की ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ वाली भावनात्मक संरचना में ढालने की कोशिश करती है। समस्या यह है कि यह न आज के समय की ईमानदार कहानी बन पाती है और न ही पुराने दौर के उस जादू को दोहरा पाती है। धर्मा प्रोडक्शंस, जिसकी पहचान रोमांटिक फिल्मों के मजबूत किले के रूप में रही है, उसी बैनर से ऐसी बिखरी और कमजोर फिल्म का आना बेहद निराशाजनक लगता है। कहानी कहानी रेहान मेहरा (कार्तिक आर्यन) और रूमी (अनन्या पांडे) के इर्द-गिर्द घूमती है। रेहान अमेरिका में अपनी मां पिंकी (नीना गुप्ता) के साथ रहता है और दोनों मिलकर वेडिंग इवेंट मैनेजमेंट का बिजनेस चलाते हैं। रूमी आगरा की रहने वाली एक लेखिका है, जो अपने पिता कर्नल अमरवर्धन सिंह (जैकी श्रॉफ) से गहराई से जुड़ी हुई है। दोनों की मुलाकात क्रोएशिया में होती है और वहीं से एक जबरन थोपा गया प्रेम प्रसंग शुरू हो जाता है। फिल्म खुद स्वीकार करती है कि यह 2025 के हुक-अप कल्चर और 1990 के दशक के बॉलीवुड रोमांस का मेल है, लेकिन यह मेल कागज पर ही अच्छा लगता है। कहानी का टकराव बहुत देर से आता है और इतना बनावटी है कि वह सिर्फ क्लाइमैक्स तक पहुंचने का बहाना लगता है। मां से बेहद जुड़े बेटे और पिता को छोड़ न पाने वाली बेटी की यह कहानी भावनात्मक गहराई से पूरी तरह खाली है। अभिनय कार्तिक आर्यन का अभिनय इस फिल्म में जरूरत से ज्यादा ऊर्जावान और असंतुलित नजर आता है। वे पूरी मेहनत करते दिखते हैं, लेकिन भावनाओं की बारीक परतें पकड़ नहीं पाते, जिससे कई दृश्य लाउड हो जाते हैं। अनन्या पांडे रूमी के किरदार में प्रेम और पारिवारिक भावनाओं को सही ढंग से व्यक्त नहीं कर पातीं। उनके अभिनय में ठहराव और गहराई की कमी साफ महसूस होती है। नीना गुप्ता और जैकी श्रॉफ जैसे मंझे हुए कलाकार भी कमजोर संवाद और बनावटी टोन के कारण अप्राकृतिक और शोर भरे लगते हैं। टिंकू तलसानिया जैसे अनुभवी अभिनेता को फिल्म में लगभग व्यर्थ ही इस्तेमाल किया गया है। रूमी की बहन जिया के रूप में चांदनी का किरदार भी असर नहीं छोड़ता। इंफ्लुएंसर के रूप में, जहां वे आलिया भट्ट की मिमिक्री करती हैं, वहां वे कहीं अधिक सहज और प्रभावी नजर आती हैं। निर्देशन समीर विद्वांस का निर्देशन फिल्म को एक स्पष्ट दिशा नहीं दे पाता। पटकथा बिखरी हुई है और संवाद इतने क्रिंज हैं कि कई जगह फिल्म खुद पर बोझ बन जाती है। संघर्ष देर से आता है और आते ही बनावटी लगने लगता है। पूरी फिल्म में ‘डीडीएलजे’ की छाया इतनी गहरी है कि यह अपनी अलग पहचान बना ही नहीं पाती। तकनीकी तौर पर सिनेमैटोग्राफी ही एकमात्र ऐसा पक्ष है जो थोड़ी राहत देता है। अनिल मेहता ने क्रोएशिया, राजस्थान और आगरा की लोकेशनों को खूबसूरती से फिल्माया है, लेकिन सुंदर दृश्य कमजोर कहानी को बचा नहीं पाते। फिल्म के संवाद इसकी सबसे बड़ी कमजोरियों में से हैं। कॉमेडी के नाम पर परोसे गए कई संवाद ऐसे हैं, जो हंसी नहीं, बल्कि खीज पैदा करते हैं। जेन जी की भाषा और सोच को पकड़ने की कोशिश में संवाद इतने बनावटी और जबरन ‘कूल’ बनाए गए हैं कि वे पूरी तरह फ्लैट गिरते हैं। न तो उनमें चुटीलापन है और न ही कोई याद रहने वाला असर। फिल्म का एक और बेहद खटकने वाला पहलू यह है कि नायक के इर्द-गिर्द उम्रदराज महिला पात्र को जबरन ‘लस्टफुल’ दिखाने की कोशिश की गई है। यह न हास्य पैदा करता है, न ही कहानी में कोई योगदान देता है। इसके उलट, यह दृश्य फिल्म की संवेदनहीनता को उजागर करता है और दर्शक को असहज महसूस कराता है। ऐसे क्षण न सिर्फ बेसिर-पैर के लगते हैं, बल्कि यह भी सवाल उठाते हैं कि आखिर ऐसी प्रस्तुति की जरूरत क्यों महसूस की गई। संगीत और पृष्ठभूमि संगीत विशाल–शेखर के गाने औसत हैं और फिल्म की गति को बार-बार रोकते हैं। हितेश सोनिक का पृष्ठभूमि संगीत भी भावनात्मक दृश्यों में जान नहीं भर पाता और कुल मिलाकर बेअसर रहता है। अंतिम निर्णय ‘तू मेरी मैं तेरा, मैं तेरा तू मेरी’ जेन जी के लिए बनाई गई एक असफल ‘डीडीएलजे’ साबित होती है। धर्मा प्रोडक्शंस जैसे बैनर से, जिसने रोमांटिक सिनेमा को दशकों तक मजबूत किया है, ऐसी कमजोर लेखन और थकी हुई सोच वाली फिल्म का आना चौंकाता भी है और निराश भी करता है। न इसमें आज के दौर की सच्चाई है और न ही पुराने रोमांस की आत्मा।
फिल्म रिव्यू- तू मेरी, मैं तेरा…:जेन जी के लिए ‘डीडीएलजे’ बनाने की असफल कोशिश, धर्मा के मजबूत रोमांस ब्रांड से निकली एक खोखली प्रेम कहानी


