कोलकाता के थिएटर से शुरू हुआ शाहिदुर रहमान का सफर “भाग मिल्खा भाग” से राष्ट्रीय पहचान तक पहुंचा। शेर सिंह राणा के उनके शांत लेकिन प्रभावशाली अभिनय ने दर्शकों का ध्यान खींचा। मगर सफर यहीं नहीं रुका। कोविड के दौर में जब कई कलाकार ठहर गए, तब शाहिदुर ने ऑस्ट्रियन डायरेक्टर संदीप की फिल्म ‘हैप्पी’ में एक नए रंग में खुद को साबित किया। पांच महीने जर्मन भाषा सीखकर निभाया गया यह रोल उनके जुनून और समर्पण की मिसाल बना। इस फिल्म दुनिया भर के कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में खूब सराहना मिली। शाहिदुर रहमान ने दैनिक भास्कर से हाल ही में खास बातचीत की। पेश है कुछ प्रमुख अंश.. सवाल: आपका अभिनय सफर कहां से शुरू हुआ? जवाब: मैंने 1999 में कोलकाता यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया और उसके बाद रवींद्र भारती यूनिवर्सिटी से थिएटर सीखा। शुरुआती दिनों में बंगाली थिएटर से जुड़ा रहा। सपना था एनएसडी में पढ़ने का, और तीसरे प्रयास में 2006 में दाखिला मिल गया। उस बीच हिमाचल में एक साल कड़ी ट्रेनिंग ली। योग, मेडिटेशन और मूवमेंट क्लासेज से खुद को शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार किया। सवाल: एनएसडी तक पहुंचना आसान नहीं रहा होगा? जवाब: बिल्कुल नहीं। NSD पहुंचने से पहले बहुत संघर्ष किया। बांग्ला मातृभाषा होने के कारण हिंदी अभिव्यक्ति मुश्किल थी। इसलिए तय किया कि जब तक हिंदी में सहजता नहीं आती, मुंबई नहीं जाऊंगा। दिल्ली में रहकर थिएटर किया, वहीं से फिल्मों में प्रवेश किया। सवाल: बचपन से ही अभिनेता बनने की चाह थी? जवाब: हां, बचपन में रामायण और महाभारत देखकर अभिनय से प्यार हुआ। आठ साल की उम्र में खुद को लक्ष्मण समझता था। किशोरावस्था में ‘टीपू सुल्तान’ और ‘सर्कस’ देखीं तो चाह और मजबूत हो गई। दसवीं के बाद जब पिताजी से अभिनय स्कूल जाने की बात की, तो पहले कहा कि सरकारी नौकरी करो, लेकिन बाद में बोले-“तीन साल का समय दूंगा, खुद रास्ता खोजो और साबित करो।” वही बात आज भी मेरे दिल में गूंजती है। सवाल: फिल्मों में पहला बड़ा मौका कैसे मिला? जवाब: NSD में तीसरे साल YouTube पर एक फोटो वीडियो डाला था। उसी वीडियो से हैदराबाद से कॉल आया। नागार्जुन के बेटे की फिल्म में विलेन के तौर पर लॉन्च करने का ऑफर मिला। लेकिन मैंने एनएसडी की पढ़ाई पूरी करने के लिए मना कर दिया। मेरा मानना था कि अभिनय की नींव मजबूत किए बिना आगे बढ़ना सही नहीं। सवाल: ‘भाग मिल्खा भाग’ में आपका किरदार यादगार रहा। ये मौका कैसे मिला? जवाब: 2011 में हॉलीवुड फिल्म का ऑफर मिला था, पर शूट तीन दिन में बंद हो गया। फिर ‘भाग मिल्खा भाग’ का ऑडिशन हुआ। पहले मिल्खा सिंह के रोल के लिए कास्टिंग हुई थी, लेकिन फरहान अख्तर को लिया गया। बाद में राकेश ओमप्रकाश मेहरा सर ने मुझे शेर सिंह राणा का किरदार दिया। किरदार छोटा, लेकिन असरदार था। शूट के दौरान फरहान और मेहरा जी ने बहुत सम्मान दिया। वह मेरे करियर का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ। सवाल: छोटा या सपोर्टिंग रोल करने पर कोई पछतावा? जवाब: नहीं। ‘भाग मिल्खा भाग’ के बाद कुछ कास्टिंग डायरेक्टर्स ने कहा कि सिर्फ लीड पर फोकस करो। पहले लगता था कि सिर्फ लीड रोल करना है। लेकिन जब फिल्में हाथ से निकलीं, तब समझ आया कि रोल का आकार नहीं, ईमानदारी मायने रखती है। 2019 में ‘The Last Koan’ के लिए मुझे चेल्सी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट एक्टर का अवॉर्ड मिला। अब हर अच्छा मौका एक आशीर्वाद जैसा लगता है। सवाल: कोविड के बाद आपके करियर में क्या बदलाव आए? जवाब: कोविड के दौरान फिल्मों का फ्लो कम हुआ और आत्मसंदेह बढ़ गया। उसी समय ऑस्ट्रियन डायरेक्टर संदीप की फिल्म ‘हैप्पी’ मिली। पांच महीने जर्मन भाषा सीखी और किरदार को जीने के लिए ऑस्ट्रेलिया में रहकर भारतीय प्रवासियों का जीवन करीब से देखा। यह फिल्म मेरे जीवन की असली झलक है। सवाल: थिएटर से अब भी लगाव है? जवाब: बहुत गहरा। थिएटर मेरा आधार है। दिल्ली में ‘सारांश’ और ‘विन्सेंट वैंगफॉक’ जैसे नाटक किए। मुंबई आने के बाद अतुल सत्य कौशिक के नाटक ‘ईश्वर’ में मेघनाथ बना। यह नाटक अब तक 25 बार से ज्यादा कर चुका हूं। मंच से जुड़ना मुझे संतुलन देता है। सवाल: आगे किस दिशा में बढ़ना चाहते हैं? जवाब: अब निर्देशन की ओर जाना चाहता हूं। अपनी एक्टिंग एकेडमी खोलने की योजना भी है। चाहता हूं कि जो सीखा है, उसे नए कलाकारों तक पहुंचाऊं। इस समय मैं सागर पिक्चर्स की मायथोलॉजिकल फिल्म ‘श्रीमद भागवतम’ में अहम किरदार निभा रहा हूँ। सवाल: अपनी कुछ प्रमुख फिल्मों और वेब सीरीज के बारे में बताइए? जवाब: मेरी प्रमुख फिल्मों में ‘भाग मिल्खा भाग’, ‘कौन कितने पानी में’, ‘काबिल’, ‘बाटला हाउस’, ‘पृथ्वीराज’, ‘विक्रम वेदा’, ‘स्टोलेन’ और बंगाली फिल्म ‘किडनैप’ शामिल हैं। वेब सीरीज ‘मेड इन हेवन’, ‘ग्रहण’, ‘दहन’, और ‘सिन’ में भी काम किया है। सवाल: संघर्ष के बीच खुद को कैसे संभालते हैं? जवाब: योग और मेडिटेशन मुझे धरातल पर रखते हैं। मुंबई में शुरुआत बहुत कठिन थी। कई बार फिल्मों से अंतिम समय में हटा दिया गया। जब काबिल की शूटिंग कर रहा था। तब डायरेक्टर संजय गुप्ता ने बहुत अच्छी बात कही थी- ‘सपना इस शहर में बनता है और टूटता है।’ उनकी यह लाइन हमेशा याद रहती है। मेरी पत्नी, जो एस्ट्रोलॉजर हैं और कोलकाता से हैं, और मेरी बेटी हमेशा ताकत बनकर साथ खड़ी रहीं। सवाल: आज जब पीछे मुड़कर देखते हैं, तो क्या महसूस होता है? जवाब: मैंने एनएसडी तक का सपना पूरा किया, लेकिन सफर चुनौतियों से भरा रहा। ‘हैप्पी’ और ‘द लास्ट कुआन’ जैसी अंतरराष्ट्रीय फेस्टिवल फिल्मों ने हौसला दिया। थिएटर से पहचान मिली, लेकिन संघर्ष अब भी जारी है। बस इतना जानता हूं कि सपना अगर देखा है तो टूट भी सकता है, लेकिन बन भी सकता है। फर्क बस इतना है कि खुद को टूटने मत देना।


