29 मई 1987 की रात। जगह- बिहार का औरंगाबाद जिला। वही औरंगाबाद जहां देश का इकलौता पश्चिम मुखी सूर्य मंदिर है। करीब 500 लोगों की भीड़ ‘एमसीसी जिंदाबाद’ नारा लगाते हुए बढ़ रही थी। हाथों में बंदूक, कुल्हाड़ी, गड़ासा और केरोसिन तेल के डिब्बे थे। थोड़ी देर बाद सभी एक जगह रुके। कुछ बात की। फिर आधे बघौरा गांव की तरफ चल पड़े और आधे दलेलचक की ओर। दोनों गांव एक किलोमीटर की दूरी पर हैं। यहां राजपूतों का दबदबा था। बघौरा के गया सिंह वन विभाग में हेड क्लर्क थे। गांव में इकलौता पक्का मकान उन्हीं का था। शौक से बनवाए थे। सिंहद्वार पर दूर से ही आंखें ठहर जाती थीं। रात करीब 8 बजे अचानक कुछ शोर सुनाई पड़ा। उन्होंने दरवाजा खोलकर देखा, तो सामने 200-300 लोगों की भीड़ खड़ी थी। गया सिंह ने हड़बड़ाकर दरवाजा बंद कर लिया। वे दो कदम भी नहीं बढ़े थे कि भीड़ ने धक्का देकर दरवाजा तोड़ दिया। सबसे पहले घर के मर्दों को घसीटकर बाहर निकाला और लाइन में खड़ा कर दिया। इस बीच दो लड़कों ने नजर बचाकर भागना चाहा, लेकिन हमलावरों ने गोली चला दी। दोनों वहीं गिर पड़े। हमलावर उनके नजदीक गया। सांसें अभी पूरी तरह टूटी नहीं थीं। उसने गड़ासा गर्दन पर दे मारी। फिर पसीना पोंछते हुए बोला- ‘अरे देख क्या रहे हो… जाओ इनकी औरतों को उठा लाओ।’ 20-25 हमलावर अंदर घुसे और महिलाओं-बच्चों को उठा-उठाकर बाहर पटकने लगे। सब चीख रहे थे- ‘हमें मत मारो। छोड़ दो। हम तुम्हारे पैर पड़ते हैं।’ एक हमलावर बोल पड़ा- ‘##$% बहुत गर्मी दिखाते हैं ये लोग। हमारी औरतों से मजदूरी कराते हैं। इनके सामने ही औरतों की इज्जत उतारो। तभी बदला पूरा होगा।’ हमलावर, महिलाओं और लड़कियों पर टूट पड़े। उनके कपड़े फाड़ दिए। बलात्कार करने लगे। कुछ देर बाद एक अधेड़ बोल पड़ा- ‘बहुत हो गया। अब सबको काट डालो।’ हमलावर, महिलाओं को घसीटते हुए बरामदे में ले गए। उनकी गर्दन तखत पर रखकर जोर से दबा दी। एक हमलावर ने कुल्हाड़ी उठाई और एक-एक करके पांच महिलाओं की गर्दन उतार दी। पूरे बरामदे में खून फैल गया। हमलावर बोला- ‘ठिकाने लगा दो सबको।’ 8-10 लोग फावड़ा लेकर घर के सामने ही गड्ढा खोदने लगे। कुछ ही देर में गड्ढा तैयार हो गया। हमलावरों ने महिलाओं की लाश गड्ढे में डालकर ऊपर से मिट्टी भर दिया। ‘अब इन #@$%* को बांधकर ले चलो बरगद के पास। गांव वाले भी तो देखें कि हमसे टकराने का अंजाम क्या होता है।’ ये सुनते ही हमलावरों ने गया सिंह और उनके परिवार के लोगों के हाथ-पैर बांध दिए। घसीटते हुए बरगद के पेड़ के पास ले गए। गांव की शुरुआत में ही बड़ा सा बरगद का पेड़ था। अब तक गांव में चीख-पुकार मच चुकी थी। हमलावर राजपूत परिवारों से चुन-चुनकर महिला, पुरुष और बच्चों को घसीटते हुए बरगद पेड़ के पास ला रहे थे। कई लोग छत से कूदकर खेतों की तरफ भाग रहे थे। हमलावर लगातार फायरिंग कर रहे थे। कुछ लोग तो मौके पर ही मारे गए। 40 साल का एक शख्स ट्रैक्टर लेकर घर लौट रहा था। हमलावरों को देखते ही चीख पड़ा- ‘अरे काका हम राजपूत नहीं हैं। हम तो इनके घर काम करते हैं। हम हरिजन हैं हरिजन।’ #$%@#$ झूठ बोल रहा… कहते हुए एक अधेड़ ने उसकी पीठ पर कुल्हाड़ी मार दी। दो हमलावरों ने उसे ट्रैक्टर की सीट से बांध दिया। फिर केरोसिन तेल का डिब्बा ट्रैक्टर पर उड़ेला और आग लगा दी। कुछ ही मिनटों में ड्राइवर तड़प-तड़प कर मर गया। इधर, बगल के गांव दलेलचक में कमला कुंवर कुछ घंटे पहले ही ससुराल से लौटी थीं। पिता भोज की तैयारी कर रहे थे। मेहमान आ चुके थे। अचानक कुत्ते भौंकने लगे। कमला अपनी बहन ललिता से बोली- ‘जाओ देखो तो बाहर कौन है?’ ललिता ने झांककर देखा सैकड़ों हथियारबंद गांव की तरफ बढ़ रहे थे। वो चीख उठी- ‘पापा, मम्मी सब भागो, नक्सली आ गए हैं।’ दोनों बहनें, उनके मम्मी-पापा और बाकी रिश्तेदार खेतों की तरफ भागने लगे। तभी बगल के लोगों ने रोक लिया। कहने लगे- ‘आप लोगों को कोई खतरा नहीं है। घर में ही छिप जाओ।’ कुछ ही मिनटों में भीड़ ने गांव में धावा बोल दिया। राजपूतों के घरों में घुस गए। मारकाट मचाने लगे। कमला और ललिता घर के पीछे भूसे के ढेर में छिप गईं। बाकी परिवार और रिश्तेदार पकड़े गए। दो साल का बच्चा पलंग पर सो रहा था। वो भीड़ देखकर रोने लगा। हमलावर ने चीखते हुए कहा- ‘इस कमीने को सबसे पहले मारो।’ इतना सुनते ही एक अधेड़ ने बच्चे को उठाकर चौखट पर पटक दिया। उसका सिर फट गया। हमलावर ने बाल पकड़कर बच्चे को उठा लिया। दूसरे ने बच्चे की गर्दन पर कुल्हाड़ी दे मारी। बच्चे का सिर हमलावर के हाथ में रह गया और बॉडी नीचे गिर गई। एक ने औरतों की तरफ इशारा करते हुए बोला- ‘इनकी इज्जत लूट लो और काम तमाम कर दो।’ हमलावरों ने वैसा ही किया। बलात्कार करके महिलाओं और लड़कियों की गर्दन उतार दी। कमला के पिता से यह देखा नहीं गया। वे गाली देते हुए हमलावरों पर झपटे, पर उन लोगों ने दबोच लिया। दो हमलावरों ने उनका पैर पकड़ा और दो ने हाथ। 20 साल के एक लड़के ने उनके पेट में कुल्हाड़ी मार दी। वो चीख उठे। तभी हमलावर ने उनके मुंह में बंदूक का बट ठूंस दिया। चंद मिनटों में वे तड़प-तड़पकर शांत हो गए। अब एक हमलावर बोला- ‘टाइम खराब मत करो। सारे मर्दों को बांध दो और ले चलो बरगद के पेड़ के पास।’ हमलावरों ने रस्सी से सभी मर्दों के हाथ पैर बांध दिए और घसीटते हुए उसी बरगद के पेड़ के पास ले जाने लगे। दलेलचक के बाकी घरों में भी ऐसे ही कोहराम मचा था। हमलावरों ने महिलाएं और लड़कियों को बलात्कार के बाद घर में ही मार दिया। जबकि मर्दों के हाथ-पैर बांधकर बरगद के पेड़ के पास बैठा दिया। दलेलचक और बघौरा दोनों गांव से करीब 40-50 लोगों को पकड़कर हमलावरों ने यहां रखा था। कुछ ही देर में हमलावरों ने सबको बरगद के पेड़ से बांध दिया। ये लोग जोर जोर से चीख रहे थे- बचाओ, बचाओ। पर कोई सुनने वाला नहीं था। गांव के गैर राजपूतों ने अपने-अपने दरवाजे बंद कर लिए थे। अब तक रात के 9 बज चुके थे। हमलावरों के मुखिया ने कहा- ‘इन @#$%$#@ के टुकड़े-टुकड़े कर दो।’ भीड़ कुल्हाड़ी और गड़ासा लेकर टूट पड़ी। कुछ ही मिनटों में बरगद के पेड़ से दर्जनों अधकटी लाशें लटक गईं। तभी हवा में फायरिंग करते हुए एक हमलावर बोला- ‘जाओ इनके घरों में आग लगा दो। जो छुपे होंगे वो भी जल मरेंगे।’ भीड़ ने चुन-चुनकर दोनों गांवों के राजपूतों के घरों में आग लगा दी। फिर ‘एमसीसी जिंदाबाद। छेछानी का बदला ले लिया। बदला पूरा हुआ।’ का नारा लगाते हुए हमलावर निकल गए। गांव से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर मदनपुर थाना है। भीड़ की धमक, लोगों की चीखें और गोलियों की गूंज थाने तक पहुंच चुकी थीं, पर पुलिस निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। करीब 2 घंटे बाद पांच पुलिस वाले गांव के लिए निकले। बगल के दूसरे थाने से पुलिस की एक और टीम दलेलचक पहुंची। कुछ ही देर में औरंगाबाद के एसपी सतीष झा भी पहुंच गए। दोनों गांवों में घरों से अब भी आग की ऊंची-ऊंची लपटें दिख रही थीं। एसपी सतीश झा और बाकी पुलिस वाले आग बुझाने में जुट गए। वे घर-घर जाकर पानी मांग रहे थे, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। इसी बीच एसपी को कुछ लोगों के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। पुलिस वालों को लेकर वे उस तरफ दौड़े। टॉर्च जलाई। देखा 4 साल का एक बच्चा बिस्तर लपेटे एक कोने में सिसक रहा था। थोड़ी दूर पर 20-25 साल का एक लड़का भूसे के ढेर में छिपा हुआ था। उन्होंने दोनों को बाहर निकाला। इधर, पटना तक नरसंहार की खबर पहुंच गई थी। रात में ही डीजीपी शशिभूषण सहाय और आईजी ललित विजय सिंह, दलेचचक बघौरा के लिए निकल गए, पर गांव तक जाने के लिए पक्की सड़क नहीं थी। उन्हें पहुंचने में काफी देर हो गई। इधर, पूरी रात पुलिस आग बुझाने में जुटी रही, पर आग बुझने का नाम नहीं ले रही थी। अब सुबह के 5 बज गए थे। एक-एक करके लाशें गिनी जाने लगीं। बरगद के पेड़ के पास 29 कटी फटी लाशें मिलीं। सिर जमीन पर बिखरे पड़े थे और बाकी हिस्सा बरगद के पेड़ से बंधा हुआ था। पूरी जमीन खून से सन गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बूचड़खाना हो। पुलिस ने दोनों गांवों में एक-एक घर की तलाशी ली। 26 लाशें मिलीं। इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। कुल 55 लोग मारे गए थे। 54 राजपूत और एक हरिजन। 7 परिवार ऐसे थे, जिनके घरों में कोई जिंदा नहीं बचा था। आजादी के बाद ये बिहार का सबसे बड़ा जातीय नरसंहार था। आरोप माओवादी संगठन माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी पर लगा। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री। बिहार में भी सरकार कांग्रेस की थी और बिंदेश्वरी दुबे मुख्यमंत्री। एक ही चिता पर 80 साल के बुजुर्ग और 6 महीने के बच्चे का अंतिम संस्कार अगले दिन यानी 30 मई को सरकार ने नरसंहार में मारे गए लोगों का सामूहिक अंतिम संस्कार करवाया। कई लाशों की पहचान नहीं हो सकी थी। कई मृतकों के घर से कोई आया नहीं। शायद उनके परिवार में कोई बचा ही नहीं था। एक-एक चिता पर 5-7 लाशें रखी गई थीं। एक ही चिता पर 80 साल के बुजुर्ग और 6 महीने के बच्चे का अंतिम संस्कार किया गया। ये सीन देखकर वहां मौजूद लोग और पुलिस वालों की आंखें भर आई थीं। लोग जलती चिताओं से राख उठाकर तिलक लगा रहे थे। शायद ये तिलक बदले का संकेत था। पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर को धक्का मारने लगी भीड़, पत्रकार ने बचाया 31 मई की सुबह पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर दिल्ली से सीधे दलेलचक बघौरा पहुंचे। किताब ‘द जननायक कर्पूरी ठाकुर’ में उपसभापति हरिवंश नारायण उस किस्से को याद करते हैं- ‘मैं एक मैगजीन रिपोर्टर था। गया से औरंगाबाद होते हुए सुबह 6 बजे नरसंहार वाली जगह पहुंचा। मैंने देखा कि एक कोने में कर्पूरी ठाकुर चुपचाप खड़े थे।’ उसी किताब में पटना के वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार कहते हैं- ‘जब भीड़ कर्पूरी को धकियाने लगी तो मुझे लगा कि उन्हें अपमानित किया जा सकता है। हमारी आंखें मिलीं और वे मेरी स्कूटर पर पीछे बैठ गए। मैं उन्हें औरंगाबाद मेन रोड तक ले गया। वहां से वे अपनी गाड़ी में बैठकर पटना चले गए।’ जलते घर, वीरान गांव, नरसंहार का मंजर देख रो पड़े मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे 31 मई को ही मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे भी दलेलचक बघौरा पहुंचे। अब भी कई घरों में आग बुझी नहीं थी। फायर ब्रिगेड की गाड़ियां मंगाई गईं। फिर आग बुझाई गई। मुख्यमंत्री घर-घर जाकर देख रहे थे, पर गांव के ज्यादातर लोग भाग चुके थे। अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक एक बुजुर्ग, मुख्यमंत्री को देखकर बिलखने लगा। उसकी गोद में दो छोटे-छोटे बच्चे थे। कहने लगा- ‘साहब ये दोनों मेरे पोते-पोती हैं। इनके मां-बाप को मार डाला है। परिवार में बस ये ही बचे हैं। मैं अकेला इनकी देखभाल कैसे करूंगा।’ यह देखकर मुख्यमंत्री भी रोने लगे। कुछ देर बाद वे पटना लौटे और अगले दिन ऐलान किया कि एमसीसी पर बैन लगाया जाएगा। इस नरसंहार में विधायक रामलखन सिंह यादव पर भी आरोप लगा था। कहा गया कि 30 अप्रैल को वे औरंगाबाद के ही एक गांव छोटकी छेछानी में यादव महासभा के लिए गए थे। विपक्ष का दावा था कि मुख्यमंत्री भी यादव महासभा में शामिल हुए थे। एमसीसी ने इस नरसंहार को छोटकी छेछानी का ही बदला बताया था। इसलिए विपक्ष सरकार पर और ज्यादा हमलावर था। 5 जून को जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर, राम विलास पासवान और लोकदल के अजित सिंह गांव पहुंच गए। इन सब घटनाओं से सीएम पर लगातार इस्तीफे का दबाव बढ़ रहा था। जनता पार्टी और बाकी विपक्षी दल सरकार बर्खास्त करने की मांग कर रहे थे। आखिर छोटकी छेछानी में क्या हुआ था, जिसका बदला माओवादियों ने दलेलचक बघौरा में लिया… दरअसल, बघौरा गांव के बगल से कोयल नहर निकलने वाली थीं। इससे वहां की जमीनों की कीमतें अचानक बढ़ गई थीं। इन जमीनों पर राजपूतों का दावा था। जबकि यादव अपना कब्जा चाहते थे। नक्सली संगठन एमसीसी यादवों की मदद कर रहा था। दलेलचक गांव में बोध गया के महंत की सैकड़ों एकड़ जमीनें थीं। एमसीसी वालों ने उनकी कुछ जमीनों पर कब्जा कर लिया था और बटाईदारों के जरिए खेती करवा रहे थे। गांव के ही एक दबंग राजपूत रामनरेश सिंह ने महंत से 46 एकड़ जमीनें खरीद लीं और बटाईदारों को भगा दिया। कहा जाता है कि रामनरेश केंद्रीय मंत्री और बाद में पीएम बने चंद्रशेखर का करीबी था। कुछ ही दिनों बाद रामनरेश के सहयोगी कृष्णा कहार का मर्डर हो गया। सितंबर 1986 में राम नरेश के एक और सहयोगी की हत्या हो गई। आरोप एमसीसी पर लगा। 10 दिनों के भीतर ही जमींदारों ने 5-6 एमसीसी कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी। यहां से बदले की आग और धधकती गई। 20 दिन बाद पास के ही दरमिया गांव में 11 राजपूतों की हत्या हो गई। फिर से आरोप लगा एमसीसी पर। इसके बाद सरकार ने स्पेशल ऑपरेशन चलाया। पुलिस बढ़ा दी गई। सेंट्रल फोर्सेज की तैनाती की कर दी गई। कुछ महीने मामला काबू में रहा। फिर प्रशासन ने ढील दे दी। सेंट्रल फोर्सेज को पंजाब भेज दिया गया। एसपी और टास्क फोर्स वालों को भी पटना बुला लिया गया। दरअसल, उन दिनों पंजाब उग्रवाद के दौर से गुजर रहा था। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी की हत्या हो चुकी थी। 19 अप्रैल 1987 को राजपूत जमींदार केदार सिंह की हत्या हो गई। इस हत्या के दो घंटे बाद ही मुसाफिर यादव और राधे यादव परिवार के सात लोगों का कत्ल हो गया। मुसाफिर और राधे यादव एमसीसी के सपोर्टर माने जाते थे। कुछ रोज बाद मदनपुर बाजार में नक्सलियों ने पर्चा बंटवाया। जिसमें लिखा था- ‘सात का बदला सत्तर से लेंगे।’ और अगले ही महीने दलेलचक बघौरा में नरसंहार हो गया। दो साल में 3 मुख्यमंत्रियों का इस्तीफा, फिर कभी कांग्रेस का सीएम नहीं बना इस नरसंहार को लेकर विपक्ष तो हमलावर था ही, सरकार के अंदर भी अलग-अलग खेमे बंट गए थे। पूर्व सीएम जगन्नाथ मिश्रा तो अपने ही सीएम पर लापरवाही का ठीकरा फोड़ रहे थे। आनन-फानन में सरकार ने डीजीपी एसबी सहाय को हटा दिया। आईजीपी लॉ एंड ऑर्डर का भी तबादला हो गया। औरंगाबाद के एसपी भी बदल गए। पर सरकार में सबकुछ ठीक नहीं रहा। इसके बाद सीएम को दिल्ली बुलाया गया। सियासी गलियारों में कयास लगने लगे कि मुख्यमंत्री बदले जाएंगे। आखिरकार 13 फरवरी 1988 को मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे ने इस्तीफा दे दिया। भागवत झा आजाद मुख्यमंत्री बने, लेकिन एक साल बाद उन्हें भी हटा दिया गया। इसके बाद सत्येंद्र नारायण सिंह सीएम बने। पर 7 महीने बाद दिसंबर 1989 में उनका भी इस्तीफा हो गया। अगले चुनाव में दो-तीन महीने ही बचे थे। ऐसे में राज्य की कमान एक बार फिर से जगन्नाथ मिश्रा को मिली। 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 324 सीटों में से महज 71 सीटें मिलीं। पिछले चुनाव से 125 कम। मगध संभाग, जहां ये नरसंहार हुआ था, वहां की 26 सीटों में से सिर्फ 10 सीटें ही कांग्रेस बचा सकी। जबकि पिछले चुनाव में उसे 19 सीटें मिली थीं। यानी आधी सीटें कांग्रेस ने गंवा दी। 122 सीटें जीतकर जनता दल ने लेफ्ट और निर्दलीयों की मदद से सरकार बनाई और लालू यादव मुख्यमंत्री बने। 1990 के अगस्त में मंडल कमिशन की सिफारिशें लागू करने का एलान हुआ और दो महीने बाद ही बीजेपी ने राम रथ यात्रा निकाल दी। इसी दौरान लालू ने बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया। यहां से लालू को पिछड़ों के साथ ही मुस्लिमों का साथ भी मिलने लगा। दूसरी तरफ आरक्षण और सवर्णों के नरसंहारों की वजह कांग्रेस के कोर वोटर्स बीजेपी की तरफ शिफ्ट होते गए। 1995 के चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 29 सीटों ही जीत सकी। इसके बाद साल दर साल कांग्रेस कमजोर पड़ती गई। 40 साल तक बिहार में राज करने वाली कांग्रेस, राजद का छोटा भाई बनने पर मजबूर हो गई। तब से उसका सीएम तो नहीं ही बना, वह मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन पाई। हमलावर 500, आरोपी 177, 8 उम्रकैद काटकर जेल से छूट गए दलेलचक बघौरा गांव में 500 लोगों की भीड़ ने हमला किया था। इनमें से कुल 177 आरोपी बनाए गए। इनमें ज्यादातर यादव थे। दिसंबर 1992 में औरंगाबाद सेशन कोर्ट ने 8 को फांसी की सजा सुनाई गई और बाकी सबूतों के अभाव में बरी हो गए। इस फैसले के बाद नक्सलियों ने गया के बारा गांव के पास एक थाने को घेरकर 5 पुलिस वालों की हत्या कर दी। 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। इसी साल आठों आरोपी अपनी-अपनी सजा काटकर जेल से छूट गए। नरसंहार के बाद ज्यादातर राजपूत गांव छोड़कर चले गए थे। दोनों गांवों को भूतहा गांव कहा जाने लगा था। आज भी इन गांवों में राजपूतों के गिने-चुने ही घर हैं। कई परिवार तो नरसंहार के बाद लौटे ही नहीं। नोट : (यह सच्ची कहानी पुलिस चार्जशीट, कोर्ट जजमेंट, गांव वालों के बयान, अलग-अलग किताबें, अखबार और इंटरनेशनल रिपोर्ट्स पर आधारित है। क्रिएटिव लिबर्टी का इस्तेमाल करते हुए इसे कहानी के रूप में लिखा गया है।) रेफरेंस : 29 मई 1987 की रात। जगह- बिहार का औरंगाबाद जिला। वही औरंगाबाद जहां देश का इकलौता पश्चिम मुखी सूर्य मंदिर है। करीब 500 लोगों की भीड़ ‘एमसीसी जिंदाबाद’ नारा लगाते हुए बढ़ रही थी। हाथों में बंदूक, कुल्हाड़ी, गड़ासा और केरोसिन तेल के डिब्बे थे। थोड़ी देर बाद सभी एक जगह रुके। कुछ बात की। फिर आधे बघौरा गांव की तरफ चल पड़े और आधे दलेलचक की ओर। दोनों गांव एक किलोमीटर की दूरी पर हैं। यहां राजपूतों का दबदबा था। बघौरा के गया सिंह वन विभाग में हेड क्लर्क थे। गांव में इकलौता पक्का मकान उन्हीं का था। शौक से बनवाए थे। सिंहद्वार पर दूर से ही आंखें ठहर जाती थीं। रात करीब 8 बजे अचानक कुछ शोर सुनाई पड़ा। उन्होंने दरवाजा खोलकर देखा, तो सामने 200-300 लोगों की भीड़ खड़ी थी। गया सिंह ने हड़बड़ाकर दरवाजा बंद कर लिया। वे दो कदम भी नहीं बढ़े थे कि भीड़ ने धक्का देकर दरवाजा तोड़ दिया। सबसे पहले घर के मर्दों को घसीटकर बाहर निकाला और लाइन में खड़ा कर दिया। इस बीच दो लड़कों ने नजर बचाकर भागना चाहा, लेकिन हमलावरों ने गोली चला दी। दोनों वहीं गिर पड़े। हमलावर उनके नजदीक गया। सांसें अभी पूरी तरह टूटी नहीं थीं। उसने गड़ासा गर्दन पर दे मारी। फिर पसीना पोंछते हुए बोला- ‘अरे देख क्या रहे हो… जाओ इनकी औरतों को उठा लाओ।’ 20-25 हमलावर अंदर घुसे और महिलाओं-बच्चों को उठा-उठाकर बाहर पटकने लगे। सब चीख रहे थे- ‘हमें मत मारो। छोड़ दो। हम तुम्हारे पैर पड़ते हैं।’ एक हमलावर बोल पड़ा- ‘##$% बहुत गर्मी दिखाते हैं ये लोग। हमारी औरतों से मजदूरी कराते हैं। इनके सामने ही औरतों की इज्जत उतारो। तभी बदला पूरा होगा।’ हमलावर, महिलाओं और लड़कियों पर टूट पड़े। उनके कपड़े फाड़ दिए। बलात्कार करने लगे। कुछ देर बाद एक अधेड़ बोल पड़ा- ‘बहुत हो गया। अब सबको काट डालो।’ हमलावर, महिलाओं को घसीटते हुए बरामदे में ले गए। उनकी गर्दन तखत पर रखकर जोर से दबा दी। एक हमलावर ने कुल्हाड़ी उठाई और एक-एक करके पांच महिलाओं की गर्दन उतार दी। पूरे बरामदे में खून फैल गया। हमलावर बोला- ‘ठिकाने लगा दो सबको।’ 8-10 लोग फावड़ा लेकर घर के सामने ही गड्ढा खोदने लगे। कुछ ही देर में गड्ढा तैयार हो गया। हमलावरों ने महिलाओं की लाश गड्ढे में डालकर ऊपर से मिट्टी भर दिया। ‘अब इन #@$%* को बांधकर ले चलो बरगद के पास। गांव वाले भी तो देखें कि हमसे टकराने का अंजाम क्या होता है।’ ये सुनते ही हमलावरों ने गया सिंह और उनके परिवार के लोगों के हाथ-पैर बांध दिए। घसीटते हुए बरगद के पेड़ के पास ले गए। गांव की शुरुआत में ही बड़ा सा बरगद का पेड़ था। अब तक गांव में चीख-पुकार मच चुकी थी। हमलावर राजपूत परिवारों से चुन-चुनकर महिला, पुरुष और बच्चों को घसीटते हुए बरगद पेड़ के पास ला रहे थे। कई लोग छत से कूदकर खेतों की तरफ भाग रहे थे। हमलावर लगातार फायरिंग कर रहे थे। कुछ लोग तो मौके पर ही मारे गए। 40 साल का एक शख्स ट्रैक्टर लेकर घर लौट रहा था। हमलावरों को देखते ही चीख पड़ा- ‘अरे काका हम राजपूत नहीं हैं। हम तो इनके घर काम करते हैं। हम हरिजन हैं हरिजन।’ #$%@#$ झूठ बोल रहा… कहते हुए एक अधेड़ ने उसकी पीठ पर कुल्हाड़ी मार दी। दो हमलावरों ने उसे ट्रैक्टर की सीट से बांध दिया। फिर केरोसिन तेल का डिब्बा ट्रैक्टर पर उड़ेला और आग लगा दी। कुछ ही मिनटों में ड्राइवर तड़प-तड़प कर मर गया। इधर, बगल के गांव दलेलचक में कमला कुंवर कुछ घंटे पहले ही ससुराल से लौटी थीं। पिता भोज की तैयारी कर रहे थे। मेहमान आ चुके थे। अचानक कुत्ते भौंकने लगे। कमला अपनी बहन ललिता से बोली- ‘जाओ देखो तो बाहर कौन है?’ ललिता ने झांककर देखा सैकड़ों हथियारबंद गांव की तरफ बढ़ रहे थे। वो चीख उठी- ‘पापा, मम्मी सब भागो, नक्सली आ गए हैं।’ दोनों बहनें, उनके मम्मी-पापा और बाकी रिश्तेदार खेतों की तरफ भागने लगे। तभी बगल के लोगों ने रोक लिया। कहने लगे- ‘आप लोगों को कोई खतरा नहीं है। घर में ही छिप जाओ।’ कुछ ही मिनटों में भीड़ ने गांव में धावा बोल दिया। राजपूतों के घरों में घुस गए। मारकाट मचाने लगे। कमला और ललिता घर के पीछे भूसे के ढेर में छिप गईं। बाकी परिवार और रिश्तेदार पकड़े गए। दो साल का बच्चा पलंग पर सो रहा था। वो भीड़ देखकर रोने लगा। हमलावर ने चीखते हुए कहा- ‘इस कमीने को सबसे पहले मारो।’ इतना सुनते ही एक अधेड़ ने बच्चे को उठाकर चौखट पर पटक दिया। उसका सिर फट गया। हमलावर ने बाल पकड़कर बच्चे को उठा लिया। दूसरे ने बच्चे की गर्दन पर कुल्हाड़ी दे मारी। बच्चे का सिर हमलावर के हाथ में रह गया और बॉडी नीचे गिर गई। एक ने औरतों की तरफ इशारा करते हुए बोला- ‘इनकी इज्जत लूट लो और काम तमाम कर दो।’ हमलावरों ने वैसा ही किया। बलात्कार करके महिलाओं और लड़कियों की गर्दन उतार दी। कमला के पिता से यह देखा नहीं गया। वे गाली देते हुए हमलावरों पर झपटे, पर उन लोगों ने दबोच लिया। दो हमलावरों ने उनका पैर पकड़ा और दो ने हाथ। 20 साल के एक लड़के ने उनके पेट में कुल्हाड़ी मार दी। वो चीख उठे। तभी हमलावर ने उनके मुंह में बंदूक का बट ठूंस दिया। चंद मिनटों में वे तड़प-तड़पकर शांत हो गए। अब एक हमलावर बोला- ‘टाइम खराब मत करो। सारे मर्दों को बांध दो और ले चलो बरगद के पेड़ के पास।’ हमलावरों ने रस्सी से सभी मर्दों के हाथ पैर बांध दिए और घसीटते हुए उसी बरगद के पेड़ के पास ले जाने लगे। दलेलचक के बाकी घरों में भी ऐसे ही कोहराम मचा था। हमलावरों ने महिलाएं और लड़कियों को बलात्कार के बाद घर में ही मार दिया। जबकि मर्दों के हाथ-पैर बांधकर बरगद के पेड़ के पास बैठा दिया। दलेलचक और बघौरा दोनों गांव से करीब 40-50 लोगों को पकड़कर हमलावरों ने यहां रखा था। कुछ ही देर में हमलावरों ने सबको बरगद के पेड़ से बांध दिया। ये लोग जोर जोर से चीख रहे थे- बचाओ, बचाओ। पर कोई सुनने वाला नहीं था। गांव के गैर राजपूतों ने अपने-अपने दरवाजे बंद कर लिए थे। अब तक रात के 9 बज चुके थे। हमलावरों के मुखिया ने कहा- ‘इन @#$%$#@ के टुकड़े-टुकड़े कर दो।’ भीड़ कुल्हाड़ी और गड़ासा लेकर टूट पड़ी। कुछ ही मिनटों में बरगद के पेड़ से दर्जनों अधकटी लाशें लटक गईं। तभी हवा में फायरिंग करते हुए एक हमलावर बोला- ‘जाओ इनके घरों में आग लगा दो। जो छुपे होंगे वो भी जल मरेंगे।’ भीड़ ने चुन-चुनकर दोनों गांवों के राजपूतों के घरों में आग लगा दी। फिर ‘एमसीसी जिंदाबाद। छेछानी का बदला ले लिया। बदला पूरा हुआ।’ का नारा लगाते हुए हमलावर निकल गए। गांव से महज तीन किलोमीटर की दूरी पर मदनपुर थाना है। भीड़ की धमक, लोगों की चीखें और गोलियों की गूंज थाने तक पहुंच चुकी थीं, पर पुलिस निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। करीब 2 घंटे बाद पांच पुलिस वाले गांव के लिए निकले। बगल के दूसरे थाने से पुलिस की एक और टीम दलेलचक पहुंची। कुछ ही देर में औरंगाबाद के एसपी सतीष झा भी पहुंच गए। दोनों गांवों में घरों से अब भी आग की ऊंची-ऊंची लपटें दिख रही थीं। एसपी सतीश झा और बाकी पुलिस वाले आग बुझाने में जुट गए। वे घर-घर जाकर पानी मांग रहे थे, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। इसी बीच एसपी को कुछ लोगों के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी। पुलिस वालों को लेकर वे उस तरफ दौड़े। टॉर्च जलाई। देखा 4 साल का एक बच्चा बिस्तर लपेटे एक कोने में सिसक रहा था। थोड़ी दूर पर 20-25 साल का एक लड़का भूसे के ढेर में छिपा हुआ था। उन्होंने दोनों को बाहर निकाला। इधर, पटना तक नरसंहार की खबर पहुंच गई थी। रात में ही डीजीपी शशिभूषण सहाय और आईजी ललित विजय सिंह, दलेचचक बघौरा के लिए निकल गए, पर गांव तक जाने के लिए पक्की सड़क नहीं थी। उन्हें पहुंचने में काफी देर हो गई। इधर, पूरी रात पुलिस आग बुझाने में जुटी रही, पर आग बुझने का नाम नहीं ले रही थी। अब सुबह के 5 बज गए थे। एक-एक करके लाशें गिनी जाने लगीं। बरगद के पेड़ के पास 29 कटी फटी लाशें मिलीं। सिर जमीन पर बिखरे पड़े थे और बाकी हिस्सा बरगद के पेड़ से बंधा हुआ था। पूरी जमीन खून से सन गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बूचड़खाना हो। पुलिस ने दोनों गांवों में एक-एक घर की तलाशी ली। 26 लाशें मिलीं। इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। कुल 55 लोग मारे गए थे। 54 राजपूत और एक हरिजन। 7 परिवार ऐसे थे, जिनके घरों में कोई जिंदा नहीं बचा था। आजादी के बाद ये बिहार का सबसे बड़ा जातीय नरसंहार था। आरोप माओवादी संगठन माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी पर लगा। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री। बिहार में भी सरकार कांग्रेस की थी और बिंदेश्वरी दुबे मुख्यमंत्री। एक ही चिता पर 80 साल के बुजुर्ग और 6 महीने के बच्चे का अंतिम संस्कार अगले दिन यानी 30 मई को सरकार ने नरसंहार में मारे गए लोगों का सामूहिक अंतिम संस्कार करवाया। कई लाशों की पहचान नहीं हो सकी थी। कई मृतकों के घर से कोई आया नहीं। शायद उनके परिवार में कोई बचा ही नहीं था। एक-एक चिता पर 5-7 लाशें रखी गई थीं। एक ही चिता पर 80 साल के बुजुर्ग और 6 महीने के बच्चे का अंतिम संस्कार किया गया। ये सीन देखकर वहां मौजूद लोग और पुलिस वालों की आंखें भर आई थीं। लोग जलती चिताओं से राख उठाकर तिलक लगा रहे थे। शायद ये तिलक बदले का संकेत था। पूर्व सीएम कर्पूरी ठाकुर को धक्का मारने लगी भीड़, पत्रकार ने बचाया 31 मई की सुबह पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर दिल्ली से सीधे दलेलचक बघौरा पहुंचे। किताब ‘द जननायक कर्पूरी ठाकुर’ में उपसभापति हरिवंश नारायण उस किस्से को याद करते हैं- ‘मैं एक मैगजीन रिपोर्टर था। गया से औरंगाबाद होते हुए सुबह 6 बजे नरसंहार वाली जगह पहुंचा। मैंने देखा कि एक कोने में कर्पूरी ठाकुर चुपचाप खड़े थे।’ उसी किताब में पटना के वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार कहते हैं- ‘जब भीड़ कर्पूरी को धकियाने लगी तो मुझे लगा कि उन्हें अपमानित किया जा सकता है। हमारी आंखें मिलीं और वे मेरी स्कूटर पर पीछे बैठ गए। मैं उन्हें औरंगाबाद मेन रोड तक ले गया। वहां से वे अपनी गाड़ी में बैठकर पटना चले गए।’ जलते घर, वीरान गांव, नरसंहार का मंजर देख रो पड़े मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे 31 मई को ही मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे भी दलेलचक बघौरा पहुंचे। अब भी कई घरों में आग बुझी नहीं थी। फायर ब्रिगेड की गाड़ियां मंगाई गईं। फिर आग बुझाई गई। मुख्यमंत्री घर-घर जाकर देख रहे थे, पर गांव के ज्यादातर लोग भाग चुके थे। अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक एक बुजुर्ग, मुख्यमंत्री को देखकर बिलखने लगा। उसकी गोद में दो छोटे-छोटे बच्चे थे। कहने लगा- ‘साहब ये दोनों मेरे पोते-पोती हैं। इनके मां-बाप को मार डाला है। परिवार में बस ये ही बचे हैं। मैं अकेला इनकी देखभाल कैसे करूंगा।’ यह देखकर मुख्यमंत्री भी रोने लगे। कुछ देर बाद वे पटना लौटे और अगले दिन ऐलान किया कि एमसीसी पर बैन लगाया जाएगा। इस नरसंहार में विधायक रामलखन सिंह यादव पर भी आरोप लगा था। कहा गया कि 30 अप्रैल को वे औरंगाबाद के ही एक गांव छोटकी छेछानी में यादव महासभा के लिए गए थे। विपक्ष का दावा था कि मुख्यमंत्री भी यादव महासभा में शामिल हुए थे। एमसीसी ने इस नरसंहार को छोटकी छेछानी का ही बदला बताया था। इसलिए विपक्ष सरकार पर और ज्यादा हमलावर था। 5 जून को जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर, राम विलास पासवान और लोकदल के अजित सिंह गांव पहुंच गए। इन सब घटनाओं से सीएम पर लगातार इस्तीफे का दबाव बढ़ रहा था। जनता पार्टी और बाकी विपक्षी दल सरकार बर्खास्त करने की मांग कर रहे थे। आखिर छोटकी छेछानी में क्या हुआ था, जिसका बदला माओवादियों ने दलेलचक बघौरा में लिया… दरअसल, बघौरा गांव के बगल से कोयल नहर निकलने वाली थीं। इससे वहां की जमीनों की कीमतें अचानक बढ़ गई थीं। इन जमीनों पर राजपूतों का दावा था। जबकि यादव अपना कब्जा चाहते थे। नक्सली संगठन एमसीसी यादवों की मदद कर रहा था। दलेलचक गांव में बोध गया के महंत की सैकड़ों एकड़ जमीनें थीं। एमसीसी वालों ने उनकी कुछ जमीनों पर कब्जा कर लिया था और बटाईदारों के जरिए खेती करवा रहे थे। गांव के ही एक दबंग राजपूत रामनरेश सिंह ने महंत से 46 एकड़ जमीनें खरीद लीं और बटाईदारों को भगा दिया। कहा जाता है कि रामनरेश केंद्रीय मंत्री और बाद में पीएम बने चंद्रशेखर का करीबी था। कुछ ही दिनों बाद रामनरेश के सहयोगी कृष्णा कहार का मर्डर हो गया। सितंबर 1986 में राम नरेश के एक और सहयोगी की हत्या हो गई। आरोप एमसीसी पर लगा। 10 दिनों के भीतर ही जमींदारों ने 5-6 एमसीसी कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी। यहां से बदले की आग और धधकती गई। 20 दिन बाद पास के ही दरमिया गांव में 11 राजपूतों की हत्या हो गई। फिर से आरोप लगा एमसीसी पर। इसके बाद सरकार ने स्पेशल ऑपरेशन चलाया। पुलिस बढ़ा दी गई। सेंट्रल फोर्सेज की तैनाती की कर दी गई। कुछ महीने मामला काबू में रहा। फिर प्रशासन ने ढील दे दी। सेंट्रल फोर्सेज को पंजाब भेज दिया गया। एसपी और टास्क फोर्स वालों को भी पटना बुला लिया गया। दरअसल, उन दिनों पंजाब उग्रवाद के दौर से गुजर रहा था। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद इंदिरा गांधी की हत्या हो चुकी थी। 19 अप्रैल 1987 को राजपूत जमींदार केदार सिंह की हत्या हो गई। इस हत्या के दो घंटे बाद ही मुसाफिर यादव और राधे यादव परिवार के सात लोगों का कत्ल हो गया। मुसाफिर और राधे यादव एमसीसी के सपोर्टर माने जाते थे। कुछ रोज बाद मदनपुर बाजार में नक्सलियों ने पर्चा बंटवाया। जिसमें लिखा था- ‘सात का बदला सत्तर से लेंगे।’ और अगले ही महीने दलेलचक बघौरा में नरसंहार हो गया। दो साल में 3 मुख्यमंत्रियों का इस्तीफा, फिर कभी कांग्रेस का सीएम नहीं बना इस नरसंहार को लेकर विपक्ष तो हमलावर था ही, सरकार के अंदर भी अलग-अलग खेमे बंट गए थे। पूर्व सीएम जगन्नाथ मिश्रा तो अपने ही सीएम पर लापरवाही का ठीकरा फोड़ रहे थे। आनन-फानन में सरकार ने डीजीपी एसबी सहाय को हटा दिया। आईजीपी लॉ एंड ऑर्डर का भी तबादला हो गया। औरंगाबाद के एसपी भी बदल गए। पर सरकार में सबकुछ ठीक नहीं रहा। इसके बाद सीएम को दिल्ली बुलाया गया। सियासी गलियारों में कयास लगने लगे कि मुख्यमंत्री बदले जाएंगे। आखिरकार 13 फरवरी 1988 को मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे ने इस्तीफा दे दिया। भागवत झा आजाद मुख्यमंत्री बने, लेकिन एक साल बाद उन्हें भी हटा दिया गया। इसके बाद सत्येंद्र नारायण सिंह सीएम बने। पर 7 महीने बाद दिसंबर 1989 में उनका भी इस्तीफा हो गया। अगले चुनाव में दो-तीन महीने ही बचे थे। ऐसे में राज्य की कमान एक बार फिर से जगन्नाथ मिश्रा को मिली। 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 324 सीटों में से महज 71 सीटें मिलीं। पिछले चुनाव से 125 कम। मगध संभाग, जहां ये नरसंहार हुआ था, वहां की 26 सीटों में से सिर्फ 10 सीटें ही कांग्रेस बचा सकी। जबकि पिछले चुनाव में उसे 19 सीटें मिली थीं। यानी आधी सीटें कांग्रेस ने गंवा दी। 122 सीटें जीतकर जनता दल ने लेफ्ट और निर्दलीयों की मदद से सरकार बनाई और लालू यादव मुख्यमंत्री बने। 1990 के अगस्त में मंडल कमिशन की सिफारिशें लागू करने का एलान हुआ और दो महीने बाद ही बीजेपी ने राम रथ यात्रा निकाल दी। इसी दौरान लालू ने बीजेपी नेता लाल कृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया। यहां से लालू को पिछड़ों के साथ ही मुस्लिमों का साथ भी मिलने लगा। दूसरी तरफ आरक्षण और सवर्णों के नरसंहारों की वजह कांग्रेस के कोर वोटर्स बीजेपी की तरफ शिफ्ट होते गए। 1995 के चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 29 सीटों ही जीत सकी। इसके बाद साल दर साल कांग्रेस कमजोर पड़ती गई। 40 साल तक बिहार में राज करने वाली कांग्रेस, राजद का छोटा भाई बनने पर मजबूर हो गई। तब से उसका सीएम तो नहीं ही बना, वह मुख्य विपक्षी पार्टी भी नहीं बन पाई। हमलावर 500, आरोपी 177, 8 उम्रकैद काटकर जेल से छूट गए दलेलचक बघौरा गांव में 500 लोगों की भीड़ ने हमला किया था। इनमें से कुल 177 आरोपी बनाए गए। इनमें ज्यादातर यादव थे। दिसंबर 1992 में औरंगाबाद सेशन कोर्ट ने 8 को फांसी की सजा सुनाई गई और बाकी सबूतों के अभाव में बरी हो गए। इस फैसले के बाद नक्सलियों ने गया के बारा गांव के पास एक थाने को घेरकर 5 पुलिस वालों की हत्या कर दी। 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। इसी साल आठों आरोपी अपनी-अपनी सजा काटकर जेल से छूट गए। नरसंहार के बाद ज्यादातर राजपूत गांव छोड़कर चले गए थे। दोनों गांवों को भूतहा गांव कहा जाने लगा था। आज भी इन गांवों में राजपूतों के गिने-चुने ही घर हैं। कई परिवार तो नरसंहार के बाद लौटे ही नहीं। नोट : (यह सच्ची कहानी पुलिस चार्जशीट, कोर्ट जजमेंट, गांव वालों के बयान, अलग-अलग किताबें, अखबार और इंटरनेशनल रिपोर्ट्स पर आधारित है। क्रिएटिव लिबर्टी का इस्तेमाल करते हुए इसे कहानी के रूप में लिखा गया है।) रेफरेंस :


