1 नवंबर को उत्तराखंड में इगास या बूढ़ी दिवाली का पर्व धूमधाम से मनाया जाएगा। दिवाली के 11 दिन बाद मनाया जाने वाला यह त्योहार सिर्फ एक उत्सव नहीं, बल्कि पहाड़ की लोक भावनाओं और परंपराओं का प्रतीक भी है। इस पर्व से जुड़ी तीन अलग-अलग मान्यताएं आज भी पहाड़ के हर घर और आंगन में सुनाई देती हैं। कुमाऊं मंडल के कई जिलों में इसे भगवान राम से जोड़ा गया है तो कहीं इसे पांडवों की जीत में मनाया जाता है। वहीं गढ़वाल मंडल के कई जिलों में इस दिन को वीर माधो सिंह भंडारी की युद्ध-विजय से जोड़ा जाता है। इन सभी मान्यताओं का सार एक ही है- बुराई पर अच्छाई की विजय और अपने लोक देवताओं व पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता। यही कारण है कि हर साल दिवाली के 11 दिन बाद जब पहाड़ में भैलो जलते हैं और ढोल-दमाऊं बजते हैं, तो पूरा उत्तराखंड एक साथ ‘इगास’ के रंग में रंग जाता है। अब सिलसिलेवार तरीके से तीनों मान्यताओं के बारे में पढ़ें…. पहली मान्यता: वीर माधो सिंह भंडारी की युद्ध-विजय से जुड़ी कथा लोक कलाकार सौरभ मैठानी बताते हैं कि 17वीं शताब्दी में गढ़वाल के महान योद्धा माधो सिंह भंडारी तिब्बत के सरदारों से युद्ध लड़ रहे थे। दिवाली तक वे श्रीनगर गढ़वाल नहीं लौट पाए, जिससे लोगों को लगा कि वे युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए हैं। कुछ दिन बाद जब उनकी विजय और सुरक्षित लौटने की खबर आई, तो राजा की सहमति से एकादशी के दिन दिवाली मनाई गई। तब से यह पर्व ‘इगास बग्वाल’ के रूप में प्रचलित हो गया। इस दिन लोग अपने वीरों को याद करते हुए दीप जलाते हैं और उत्सव मनाते हैं। दूसरी मान्यता: पांडवों की विजय और घर वापसी का उत्सव ज्योतिर्लिंग जागेश्वर धाम के मुख्य पुजारी कैलाशानंद महाराज बताते हैं कि इस दिन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पांडव युद्ध जीतकर अपने घर लौटे थे। उन्होंने एक महादानव का वध भी किया था। उनकी विजय और घर वापसी की खुशी में लोगों ने दीप जलाए और इसे ‘बूढ़ी दिवाली’ के रूप में मनाया। इस दिन उत्तराखंड में पशुपालक अपने मवेशियों को तिलक लगाते हैं, माला पहनाते हैं और पूजा करते हैं। घरों में पूरी, बड़े, पूऐ और हलवा जैसे पारंपरिक व्यंजन बनते हैं। रात में ढोल-दमाऊं की थाप पर भैलो घुमाने और लोकनृत्य की परंपरा निभाई जाती है। तीसरी मान्यता: राम के अयोध्या लौटने की खबर देर से पहुंची थी श्री गुरुराम राय पब्लिक स्कूल की प्राचार्य प्राची जुयाल बताती हैं कि प्राचीन समय में जब भगवान राम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे, तो पहाड़ों तक यह खबर 11 दिन की देरी से पहुंची। उसी खुशी में यहां के लोगों ने उस दिन दिवाली मनाई, जो आगे चलकर ‘इगास’ या ‘बूढ़ी दिवाली’ कहलाई। इस दिन सुबह लोग मीठे पकवान बनाते हैं, शाम को भैला (लकड़ी की मशाल) जलाकर लोकनृत्य करते हैं। ‘इगास’ शब्द का अर्थ ही ‘एकादशी’ है, और इसे हरिबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। इस दिन भगवान विष्णु के विश्राम काल का अंत होता है और शुभ कार्यों की शुरुआत मानी जाती है।
देवभूमि में त्यौहार 1 लेकिन मान्यताएं 3:गढ़वाल में माधो सिंह भंडारी, कुमाऊं में राम और पांडवों के लिए मनाई जाती इगास


