Stree Deh Se Aage: पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी ने कहा कि मनुष्य के जीवन का एक हिस्सा बाहर है, उसे शरीर कहते हैं। जितना हम बाहर जीते हैं, उससे तीन गुना हम भीतर जीते हैं, लेकिन उस जीवन के प्रति हम जागरूक नहीं है। इसका हम कभी आंकलन नहीं करते हैं। उस जीवन के प्रति हम जागरूक नहीं हैै।

माना जाता है कि जब पुरवाई आती है तो उसमें बरसात आती है, उसमें जीवन आता है और जब पश्चिम की हवा चलती है, वह सूखा लाती है। वहां से आ रही संस्कृति भी यहीं कर रही है। अभी जो परिवर्तन का दौर चल रहा है, वह पूरब का नहीं पश्चिम का है। वे पत्रिका समूह के संस्थापक श्रद्धेय कर्पूर चंद्र कुलिश के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर सोमवार को गणगौर होटल में उनकी पुस्तक ‘स्त्री देह से आगे’ पर विषय विवेचन कार्यक्रम को संबोधित कर रहे थे।
तेजी से बदल रही भारतीय संस्कृति

उन्होंने हमारी नई पीढ़ी पश्चिम की ओर भाग रही है। आज के समय में हो रहे बदलाव पर चर्चा करने की जरूरत है। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां जीवन के प्रति दृष्टिकोण भिन्न हैं।

अपने घरों में बच्चों के आचार और विचार सदस्यों से मेल नहीं खाते हैं। लोग परिवार की तरह एक साथ नहीं बैठ रहे हैं। सब बदल रहे है और हमको पता भी नहीं चल रहा है। लोग बेफिक्र हो रहे हैं। अब हम कहेंगे कि हमारे बच्चे उनकी सुन ही नहीं रहे हैं।
पुरुष और स्त्री एक हैं

उन्होंने कहा कि हमारे सामने आज जो समाज में महिलाओं के साथ हो रहा है। वह सम्मानजनक नहीं है। इस पर चर्चा होनी चाहिए। पुरुष और स्त्री दो नहीं है। दिखते दो हैं, लेकिन अंदर आत्मा से एक ही है। रूप में स्त्री और पुरुष है। अकेले पुरुष व स्त्री कुछ नहीं कर सकते है। मां शरीर का निर्माण करती है। धरती पर देने वाली केवल मां है। एक बीज ही पेड़ बनता है। हर मां चाहती है कि उसका बच्चा पेड़ बने। कोई बीज अपने फल नहीं खाता और न ही उसे चिंता होती है कि उसका फल कौन खा रहा है।

मां के संस्कार से आएगा बदलाव
कोठारी ने कहा कि मां अपने बच्चों में संस्कार डालकर आने वाले समय में इसमें बदलाव कर सकती है। अब पढ़ाई में भी जीवन के प्रति नजरिया नजर नहीं आ रहा है। हम जो किताबें पढ़ रहे है, उनमें जीवन दर्शन है ही नहीं। लोगों को समझना पड़ेगा कि हो क्या रहा है। बच्चों को पता ही नहीं है कि हम भीतर और बाहर दो तरह की जिंदगी जीते है।






शहर की प्रबुद्ध महिलाओं ने पूछे सवाल, तो मिले कोठारी के तार्किक जवाब
हम पीहर में भी पराई, ससुराल में भी, महिला का अपना क्या?
महिलाओं मायके और ससुराल, दोनों घर पराया होने का अहसास कराया जाता है। ऐसा नहीं है, सारी बातें संस्कार पर आधारित है। महिला की सास भी पराए घर से आती है। उसकी ननद भी पराए घर जाती है। मां ही चेतना के बीज डालती है। हमें बौद्धिक विचारों को सीखना पड़ेगा।
महिला सक्षम, पर समाज पुरुष प्रधान क्यों

पहले ही हम इस पर चर्चा कर चुके हैं। मैंने कहा कि हम सब पुरुष है। नारी में भी है। शास्त्रों की भाषा को हमेशा सीधा पढ़िए नहीं तो हम भ्रमित हो जाएंगें। यह उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। आत्मा दोनों की एक है यह शरीर अलग-अलग भूमिका के लिए दिया है। इससे भ्रमित होने की जरूरत नहीं है।
बच्चों को संस्कारित करने में स्त्री की किस तरह की भूमिका होती है

एक महिला बचपन से लेकर बड़े होने तक जिन अनुभवों से गुजरती है। जिस तरह के वातावरण से उसको अनुभव मिलते हैं, जो संस्कार उसको मिलते हैं, जो कुछ वह सीखती जाती है, उन्हीं को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से अपने बच्चों को देती रहती है तो उनका एक संतुलित विकास होता है। वह संवेदना के स्तर पर अपने बालकों से बहुत गहराई से जुड़ी हुई होती है। इसलिए इस तरह के विकास में उसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
ढोल, गंवार, पशु, शुद्र, नारी… इस दोहे का क्या अर्थ है

आप इन शब्दों में मत जाइए। वेद-पुराण और शास्त्रों में लिखी बातें आसानी से समझ नहीं आती। समय के साथ उनकी व्याख्या करते समय शास्त्रों में कुछ इस तरह के शब्द और दोहे सम्मिलित हो गए है। पुरुष और प्रकृति से मिलकर इस संसार की रचना हुई है। पुरुष आधा खाली है, उसकी पूर्णता नारी ही करती है। संस्कारों और सभ्यताओं का संरक्षण भी नारी के द्वारा ही होता है।
पुरुषों में जो ईगो होता है, उसे कैसे रोका जाए

बचपन से ही बच्चों को इस तरह से पाला जाए कि इनमें कोई अहंकार ही न रहे। उन्हें स्त्री की शक्तियों से परिचित कराया जाए। उन्हें यह बताया जाए कि हर व्यक्ति आधा पुरुष और आधा नारी होता है। नारी के सम्मान के बिना पुरुष का भी कोई सम्मान नहीं है।
बढ़ रहे पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव कैसे रोके

माता-पिता को खुद में बदलाव लाना होगा। वह सब अनुसरण करें जो वह खुद अपने बच्चों से चाहते हैं। शुरू से ही भारतीय संस्कृति के बीज उनमें बोने होंगे। आज के दौर में सब इस तरह भाग रहे हैं कि जीवन को बस नौकरी करना और जिंदगी जीना ही बना लिया है। हर मां को कम से कम एक घंटा अपने बच्चों को संस्कार और जीवन जीने की कला सिखाएं।
स्त्री अपने मूल की भावनाओं से वंचित क्यों

इससे हमारी एक पीढ़ी का नुकसान तो हो चुका, लेकिन अब भी हम स्त्री के अंदर स्त्री भाव को जगा कर अभी हम हमारी नई पीढ़ी को बचा सकते हैं और हमारे समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं। कभी भी एक महिला अपने मूल भाव को छोड़कर पुरुषत्व की ओर दौड़कर केवल उसका नुकसान ही कर सकती है। क्योंकि स्त्री देने व लेने वाली नहीं है। इसलिए अपने मूल भाव से वंचित नहीं होकर हमें अपनी नई पीढ़ी को बचाए रखने के लिए प्रयास करने होंगे।
स्त्री देह से आगे की सार्थकता कब संभव होगी

देह जब दो प्रकार की होती है एक बाहरी देह जो हमें दिखती है एक आंतरिक है जो मन बुद्धि आत्मा तीनों से बनी हुई है जब सम्मानजनक व्यवहार स्त्री के साथ नहीं होता तब स्त्री और पुरुष अलग-अलग हो जाते हैं। यही कारण है कि महिला में अर्धनारीश्वर विद्यमान होता है और पुरुषों में सिर्फ पुरुष रूपी विद्यमान रहता है। जबकि अवधारणा यह है कि ब्रह्म और माया यह दोनों ही अर्धनारीश्वर है। जब यह दोनों नारी के समान पुरुष में भी विद्वान होंगे तब नारी को अपना सम्मानजनक स्थान प्राप्त होगा।


