सरहदी इलाकों में पिछले दो दिनों से पाकिस्तान की ओर से जारी नापाक हरकतों ने सीमावर्ती गांवों में हलचल बढ़ा दी है। चांधन क्षेत्र की उन महिलाओं को पुराने जख्म फिर से याद आ गए हैं, जिन्होंने 1971 की जंग को न सिर्फ देखा, बल्कि विषम हालात में अपने परिवार और पड़ोस को सुरक्षित भी रखा। 80 वर्षीय नीरज कंवर बताती हैं कि उनका घर उस समय फायरिंग रेंज के पास था। हर पल जान का खतरा बना रहता था। खाने-पीने का संकट इतना था कि एक समय का बना दलिया पूरे परिवार का भोजन होता था। पानी इतना सीमित था कि सिर्फ पीने में ही इस्तेमाल होता था। वे कहती हैं-आज संसाधन हैं, लेकिन संकट के समय मितव्ययता और संयम आज भी जरूरी हैं।
छोटे मोर्चे, बड़ा हौसला
समदो, जो 80 वर्ष की उम्र पार कर चुकी हैं, बताती हैं कि तब घरों के सामने खुद बनाए मोर्चों में अंधेरा होते ही पूरा परिवार चला जाता था। पक्के मकान नहीं थे, झोपड़ियों में ही छिपकर गुज़ारा होता था। गांव के लोग एक-दूसरे का सहारा बनते थे और संकट का डटकर सामना करते थे।
चूल्हे की आग से बचाते थे रौशनी भी और जान भी
स्वरूपो, जो जेठा में रहती थीं, बताती हैं कि रोशनी के नाम पर घर का चूल्हा ही होता था। अंधेरा पड़ते ही चूल्हे को राख और रेत से ढक देते थे ताकि दुश्मन की नज़र न पड़े, लेकिन अगली सुबह के लिए उसमें थोड़ी आग बचाकर रखी जाती थी।
खतरे का संकेत था हवाई जहाज की आवाज
तुलसी, जो सत्तर वर्ष की हो चुकी हैं, बताती हैं कि उस समय कोई सायरन या चेतावनी नहीं मिलती थी। जब आसमान में हवाई जहाज की आवाज आती थी, तब ही लोग खतरा भांपते थे और मोर्चों की ओर भागते थे। दिनभर पानी की व्यवस्था करना सबसे बड़ी चुनौती थी।
सेना का सहयोग, स्थानीयों की सहभागिता
बुजुर्ग महिलाएं कहती हैं कि उस समय भी सेना की गतिविधियां चांधन क्षेत्र से होकर ही होती थीं। स्थानीय ग्रामीण पानी की आपूर्ति से लेकर रास्तों की जानकारी तक, हर संभव मदद करते थे। तब भी खबरें थीं कि पाकिस्तान को बाहरी मदद मिल रही है, लेकिन पूरे विश्वास के साथ वे कहती हैं — हमें भारत की सेना के हौसले पर तब भी भरोसा था, और आज भी है। दुश्मन चाहे कुछ भी कर ले, जीत कभी नहीं पाएगा।
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