आज भी जिंदा है आत्मा ले जाने की परंपरा:बोले-ढोल धमाकों के बीच दीपक की रोशनी में लौटती है अपनों की आत्मा, घर ले जाकर सेवा करते हैं

आज भी जिंदा है आत्मा ले जाने की परंपरा:बोले-ढोल धमाकों के बीच दीपक की रोशनी में लौटती है अपनों की आत्मा, घर ले जाकर सेवा करते हैं

आधुनिकता के इस दौर में भी राजस्थान का आदिवासी बहुल डूंगरपुर जिला अपनी पुरातन परंपराओं को जीवंत रखे हुए है। यहां पीढ़ियों से चली आ रही एक अनूठी परंपरा आज भी आदिवासी समाज में गहरी आस्था के साथ निभाई जाती है – मृत व्यक्ति की आत्मा को ‘ले जाने’ की परंपरा। यह परंपरा भले ही अंधविश्वास से जुड़ी मानी जाती हो, लेकिन स्थानीय समाज के लिए इसका आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व बहुत गहरा है। मंगलवार को डूंगरपुर मेडिकल कॉलेज अस्पताल में इस परंपरा का दृश्य देखने को मिला, जब दो अलग-अलग परिवार अपने दिवंगत परिजनों की आत्मा ‘लेने’ पहुंचे। अस्पताल परिसर में परिवारों ने पूजा-अर्चना कर, फूल-माला, कुमकुम और दीपक सजाकर आत्मा को बुलाया। आत्मा के प्रतीक रूप में दीपक जलाया गया और ढोल-धमाकों के साथ परिवारजन उसे लेकर घर के लिए रवाना हुए। घर पहुंचकर यह दीपक पूजा-घर में अखंड ज्योति के रूप में जलाया जाता है, जो परिवार में शांति और सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। महुआवाड़ा निवासी मणिलाल ताबियाड़ ने बताया- उसके बेटे रामलाल की एक वर्ष पूर्व जिला अस्पताल में मौत हो गई थी। परिवार आज उसी वार्ड में पहुंचा, जहां रामलाल ने अंतिम सांस ली थी। पूजा कर आत्मा के प्रतीक दीपक को जलाया गया और उसे लेकर घर लौट आए। आदिवासी समाज में यह विश्वास है कि इस पूजा से मृत आत्मा भटकती नहीं है, बल्कि शांति को प्राप्त करती है और घर-परिवार पर कोई संकट नहीं आता। समाजसेवी जीवालाल ने बताया- आदिवासी समाज में आत्मा ले जाने की परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है। इसमें परिवार के सदस्य उस स्थान पर जाकर पूजा करते हैं, जहां व्यक्ति की मृत्यु हुई थी। फिर ढोल-धमाकों, मंत्रोच्चारण और दीपक की ज्योति के साथ आत्मा को घर लाया जाता है। जीवालाल ने बताया- यह परंपरा भले ही धार्मिक विश्वासों से जुड़ी हो, लेकिन इसका सामाजिक महत्व भी गहरा है। यह परिवार के सदस्यों को एकजुट करती है, मृत व्यक्ति के प्रति सम्मान का भाव जगाती है और समाज में परंपराओं की निरंतरता बनाए रखती है।

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