बात 1912 की है। बंगाल से बिहार अलग हुआ। इसके बाद यहां एक यूनिवर्सिटी खोलने की मांग तेजी से उठी। तकरीबन 5 साल बाद 1917 में पटना यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई। जैसे यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन टेम्स नदी के किनारे है पटना यूनिवर्सिटी (PU) को गंगा नदी के किनारे स्थापित किया गया। अपनी स्थापना के 25 साल के भीतर ही PU ने कई कीर्तिमान हासिल किए। पढ़ाई, लाइब्रेरी, कैंपस और कामयाबी के चर्चे देश-दुनिया में सुर्खियां बनने लगी। एक प्रोफेसर ने तो आइंस्टीन के सिद्धांत तक को चुनौती दे दी, लेकिन आज ईस्ट का ऑक्सफोर्ड अपने दुर्दिन पर रो रहा है। जिस कैंपस से सैकड़ों नौकरशाह निकले, दर्जनों नेताओं ने राजनीति के शिखर का सफर तय किया, हजारों इंजीनियर और डॉक्टर ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया आज वही कैंपस बम से थर्रा रहा है। पढ़ाई और डिबेट की जगह हॉस्टल में बारूद और लाठियों के ढेर हैं। यह हाल तब है जब पिछले 35 साल से इसी यूनिवर्सिटी के छात्र रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की सरकार है। 29 मार्च को पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ का चुनाव होना है। मंडे स्पेशल स्टोरी में पढ़िए पटना यूनिवर्सिटी के गौरव और बर्बाद होने की कहानी… अभी यूनिवर्सिटी की क्या हालत है? जानें NIRF की ताजा रैंकिंग में पटना यूनिवर्सिटी को अंडर-50-100 की श्रेणी में रखा गया है। NAC की ग्रेडिंग B+ है। PU में PG में 38 विषयों की पढ़ाई होती है। फिलहाल यूनिवर्सिटी में लगभग 19 हजार बच्चों का एडमिशन है। अब पटना यूनिवर्सिटी के बर्बाद होने की कहानी… ‘जिगर का टुकड़ा’ से शुरू हुई तबाही की कहानी पटना यूनिवर्सिटी के कुलपति (VC) रहे रास बिहारी प्रसाद बताते हैं, ‘पटना यूनिवर्सिटी की बर्बादी की नींव 1966 में रखी गई। तब छात्र अपनी अलग-अलग मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे थे। कैंपस में गोलीबारी तक हुई। इसका लाभ उस समय के दिग्गज नेता और कांग्रेस से तुरंत अलग हुए महामाया प्रसाद ने उठाया। आंदोलन में उन्होंने दखल दी। गांधी मैदान में छात्रों की मीटिंग बुलाई। यहां मंच से इन्होंने छात्रों को जिगर का टुकड़ा कहा। बस इसी बात ने छात्र नेताओं और छात्रों को उन्मादी बना दिया। इसके बाद लड़कों में उद्दंडता बढ़ी और पटना यूनिवर्सिटी के पतन की नींव रख दी गई।’ डायरेक्ट इलेक्शन के साथ कैंपस में जाति की एंट्री हुई पटना साइंस कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल, छात्रसंघ के पहले अध्यक्ष और पूर्व मंत्री रामजतन सिन्हा बताते हैं, ‘1970 तक पटना यूनिवर्सिटी का स्वर्णिम काल था। कॉलेज के किसी स्टूडेंट्स की हिम्मत नहीं थी कि वे पॉलिटिकल एक्टिविटी में भाग लें या फिर यूनिवर्सिटी ऑफिस में भी जाएं। लोग अपना कोर्स पूरा कर लेते थे। यूनिवर्सिटी ऑफिस का चेहरा तक नहीं देखते थे। इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती थी। समय पर परीक्षा और रिजल्ट सबकुछ हो जाता था।’ 1969 में जाबार हुसैन कमेटी की अनुशंसा पर पहली बार पटना यूनिवर्सिटी कैंपस में डायरेक्ट इलेक्शन की घोषणा हुई। डायरेक्ट इलेक्शन के साथ PU कैंपस में जाति की एंट्री हुई। कास्ट लाइन पर वोट होने लगा। पूरी यूनिवर्सिटी कास्ट लाइन पर बंट गई। ये अपूरणीय क्षति हुई। जाति केवल छात्रसंघ तक ही सीमित नहीं रही। रामजतन सिन्हा बताते हैं, ‘1969 का ही वो काल था जब केके दत्त वाइस चांसलर बनकर आए। तब पटना यूनिवर्सिटी की गरिमा को सबसे बड़ा झटका लगा। इन्हीं के शासनकाल में सीनेट, सिंडिकेट में बड़े पैमाने पर जाति आधारित नियुक्तियां हुई। पूरा यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन कायस्थ और भूमिहार दो गुट में बंट गया। बहाली, प्रमोशन में कायस्थ को तवज्जो मिलने लगी। इससे यूनिवर्सिटी को काफी नुकसान हुआ।’ जेपी आंदोलन के बाद कैंपस में बढ़ी धांधली पटना यूनिवर्सिटी को करीब से जानने और समझने वाले पटना यूनिवर्सिटी की असल बर्बादी की शुरुआत 1970 से मानते हैं। इनके मुताबिक, जिस जेपी क्रांति ने देश के छात्र आंदोलन को एक नया स्वरूप और देश को नई सरकार दी, उसी जेपी आंदोलन ने पटना यूनिवर्सिटी को तबाह कर दिया। पूर्व मंत्री रामजतन सिन्हा कहते हैं, ’जेपी मूवमेंट से पहले पटना यूनिवर्सिटी में अनफेयर एग्जाम के बारे में कोई सोच नहीं सकता था, लेकिन जेपी मूवमेंट के बाद लोगों ने यहां किताब खोलकर परीक्षा दी। जो कुव्यवस्था दूसरी यूनिवर्सिटी में थी वो सारी बीमारियां यहां पहुंच गई। जेपी के आह्वान पर लोगों ने क्लास का बहिष्कार किया। टीचिंग वर्क पूरी तरह बर्बाद हो गया।’ पूर्व VC रासबिहारी प्रसाद बताते हैं, ‘जेपी आंदोलन के बाद कई छात्र नेता मुख्यधारा की सियासत में आए। छात्रों को लगने लगा कि राजनीति में आगे बढ़ने के लिए छात्र राजनीति बड़ा प्लेटफॉर्म है। इसके बाद छात्रों ने पटना यूनिवर्सिटी के प्रिंसिपल पर हमला करना शुरू किया। चोरी, परीक्षा की तिथि को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन करने लगे। ये सब पटना यूनिवर्सिटी के पतन का बड़ा कारण बना।’ सरकार की दखलंदाजी ने VC की गरिमा को कम किया पटना यूनिवर्सिटी को तबाह करने में एक बड़ी भूमिका पॉलिटिकल दखलंदाजी को माना जाता है। 1970 से पहले यूनिवर्सिटी में किसी नेता की कोई पैरवी नहीं चलती थी। लेकिन 70 के दशक से यहां सरकार अपने पसंद से वीसी की नियुक्ति करने लगी। रास बिहार प्रसाद बताते हैं, ‘70 दशक के बाद एक भी कुलपति ऐसे नहीं आए जो इसकी गरिमा बढ़ा पाए, जिनके पास विजन हो। वो अलग-अलग आधार पर चुने गए। आदर्श कुलपति का सिद्धांत धराशायी होने लगा। शिक्षक, विद्यार्थियों का पॉलिटिकल लिंकेज बढ़ने लगा। नतीजा नियुक्ति , परीक्षा, एडिमिनिस्ट्रेशन में पॉलिटिकल दखलंदाजी बढ़ी। इसके बाद स्थिति अब तक नहीं सुधर पाई।’ टाइम बॉन्ड प्रमोशन नीति के कारण अच्छे शिक्षक नहीं मिले डॉ. आरवी राय, डॉ. जेएन चटर्जी, डॉ. केसी सिन्हा, डॉ. नागेंद्र नाथ, डॉ. वशिष्ठ नारायण ऐसे सैकड़ों शिक्षक हैं, जो पटना यूनिवर्सिटी के प्राउड हैं। इनकी या इनकी लिखी किताब आज तक पढ़े और पढ़ाए जा रहे हैं। इनके पढ़ाए स्टूडेंट्स देशभर में कामयाबी के पताका फहरा रहे हैं। सरकार की एक नीति ने ऐसे शिक्षक चुनने की परंपरा को ही खत्म कर दिया। प्रो. रास बिहारी प्रसाद बताते हैं, ‘1998 में सरकार टाइम बॉन्ड प्रमोशन नीति लेकर आई। इसे लागू करने वाला बिहार पहला राज्य था। इसके बाद हुआ ये कि योग्यता छोड़कर काम करने की अवधि के आधार प्रमोशन शुरू हो गया। 18 साल में रीडर 25 साल में प्रोफेसर बन गए। इससे शिक्षकों के विचार और सोच खत्म हो गई। टाइम बॉन्ड प्रमोशन ने प्रतिभा पर ताला लगा दिया।’ फैकल्टी, लैब, लाइब्रेरी और प्लेसमेंट PU में बचे ही नहीं पटना यूनिवर्सिटी में 18 साल से कार्यरत प्रो. गौतम शर्मा बताते हैं, ‘पटना यूनिवर्सिटी के लैब और लाइब्रेरी का मुकाबला कभी फॉरेन की यूनिवर्सिटी से की जाती थी। 9 बच्चे पर एक शिक्षक हुआ करते थे। जिस हॉस्टल की चर्चा कभी IAS, IPS, इंजीनियर और डॉक्टर देने के नाम से होती थी, वो आज सबकुछ तबाह है।’ आज न लैब है, न लाइब्रेरी है और न ही स्थायी शिक्षक हैं। पीएचडी के लिए शहर नहीं राज्य से बाहर पलायन करना पड़ रहा है। प्लेसमेंट सेल है, लेकिन पूरी तरह फंक्शनल नहीं है। एक दो कोर्स को छोड़कर किसी कोर्स में प्लेसमेंट नहीं हो रहा है। हम कैसे PU को सेंट्रल यूनिवर्सिटी के समकक्ष खड़ा करने का सपना देख सकते हैं। गौतम शर्मा बताते हैं, ‘एक यूनिवर्सिटी को आगे बढ़ने के लिए खासकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त करने के लिए ये जरूरी है कि वहां नए कोर्स हो, टेक्निकल कॉलेज हो। नए मेडिकल, बीएड, इंजीनियरिंग, बीएड कॉलेज हो, वो नहीं खुल पाया है।’ PU से निकली है ये नामचीन हस्तियां लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, फिल्म एक्टर व राजनेता शत्रुघ्न सिन्हा, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी, नौकरशाह राजीव गौवा, बिहार के चीफ सेक्रेटरी रहे अंजनी कुमार सिंह, आमिर सुबाहनी, पूर्व गृह सचिव राजीव गौवा पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे, पूर्व आईपीएस किशोर कुणाल। PU के गौरव रहे हैं ये शिक्षक यहां प्राचीन इतिहास और संस्कृति विभाग के प्रख्यात शिक्षक प्रो अल्तेकर, जाने माने इतिहासकार प्रो रामशरण शर्मा, प्रो सय्यद हसन अस्करी, प्रो केके दत्त, राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रो मेनन, प्रो फिलिप्स और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बाथेजा जैसे शिक्षक पीयू की गरिमा में चार चांद लगाते थे। ——————— ये भी पढ़ें…. ‘कॉलेज नहीं आने पर लालू की बेटी को पड़ी डांट’:PMCH वालों को बिना इंटरव्यू के मिलती थी नौकरी, शताब्दी कार्यक्रम में कल आएंगी राष्ट्रपति बिहार का सबसे बड़ा अस्पताल पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (PMCH) कल यानी 25 फरवरी को 100 साल का हो जाएगा। शताब्दी समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आ रहीं हैं। अपने रुतबे को बरकरार रखते हुए PMCH आज दुनिया का दूसरा और देश का सबसे बड़ा अस्पताल बनने की कगार पर है। पूरी खबर पढ़िए बात 1912 की है। बंगाल से बिहार अलग हुआ। इसके बाद यहां एक यूनिवर्सिटी खोलने की मांग तेजी से उठी। तकरीबन 5 साल बाद 1917 में पटना यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई। जैसे यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन टेम्स नदी के किनारे है पटना यूनिवर्सिटी (PU) को गंगा नदी के किनारे स्थापित किया गया। अपनी स्थापना के 25 साल के भीतर ही PU ने कई कीर्तिमान हासिल किए। पढ़ाई, लाइब्रेरी, कैंपस और कामयाबी के चर्चे देश-दुनिया में सुर्खियां बनने लगी। एक प्रोफेसर ने तो आइंस्टीन के सिद्धांत तक को चुनौती दे दी, लेकिन आज ईस्ट का ऑक्सफोर्ड अपने दुर्दिन पर रो रहा है। जिस कैंपस से सैकड़ों नौकरशाह निकले, दर्जनों नेताओं ने राजनीति के शिखर का सफर तय किया, हजारों इंजीनियर और डॉक्टर ने अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया आज वही कैंपस बम से थर्रा रहा है। पढ़ाई और डिबेट की जगह हॉस्टल में बारूद और लाठियों के ढेर हैं। यह हाल तब है जब पिछले 35 साल से इसी यूनिवर्सिटी के छात्र रहे लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की सरकार है। 29 मार्च को पटना यूनिवर्सिटी छात्र संघ का चुनाव होना है। मंडे स्पेशल स्टोरी में पढ़िए पटना यूनिवर्सिटी के गौरव और बर्बाद होने की कहानी… अभी यूनिवर्सिटी की क्या हालत है? जानें NIRF की ताजा रैंकिंग में पटना यूनिवर्सिटी को अंडर-50-100 की श्रेणी में रखा गया है। NAC की ग्रेडिंग B+ है। PU में PG में 38 विषयों की पढ़ाई होती है। फिलहाल यूनिवर्सिटी में लगभग 19 हजार बच्चों का एडमिशन है। अब पटना यूनिवर्सिटी के बर्बाद होने की कहानी… ‘जिगर का टुकड़ा’ से शुरू हुई तबाही की कहानी पटना यूनिवर्सिटी के कुलपति (VC) रहे रास बिहारी प्रसाद बताते हैं, ‘पटना यूनिवर्सिटी की बर्बादी की नींव 1966 में रखी गई। तब छात्र अपनी अलग-अलग मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे थे। कैंपस में गोलीबारी तक हुई। इसका लाभ उस समय के दिग्गज नेता और कांग्रेस से तुरंत अलग हुए महामाया प्रसाद ने उठाया। आंदोलन में उन्होंने दखल दी। गांधी मैदान में छात्रों की मीटिंग बुलाई। यहां मंच से इन्होंने छात्रों को जिगर का टुकड़ा कहा। बस इसी बात ने छात्र नेताओं और छात्रों को उन्मादी बना दिया। इसके बाद लड़कों में उद्दंडता बढ़ी और पटना यूनिवर्सिटी के पतन की नींव रख दी गई।’ डायरेक्ट इलेक्शन के साथ कैंपस में जाति की एंट्री हुई पटना साइंस कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल, छात्रसंघ के पहले अध्यक्ष और पूर्व मंत्री रामजतन सिन्हा बताते हैं, ‘1970 तक पटना यूनिवर्सिटी का स्वर्णिम काल था। कॉलेज के किसी स्टूडेंट्स की हिम्मत नहीं थी कि वे पॉलिटिकल एक्टिविटी में भाग लें या फिर यूनिवर्सिटी ऑफिस में भी जाएं। लोग अपना कोर्स पूरा कर लेते थे। यूनिवर्सिटी ऑफिस का चेहरा तक नहीं देखते थे। इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती थी। समय पर परीक्षा और रिजल्ट सबकुछ हो जाता था।’ 1969 में जाबार हुसैन कमेटी की अनुशंसा पर पहली बार पटना यूनिवर्सिटी कैंपस में डायरेक्ट इलेक्शन की घोषणा हुई। डायरेक्ट इलेक्शन के साथ PU कैंपस में जाति की एंट्री हुई। कास्ट लाइन पर वोट होने लगा। पूरी यूनिवर्सिटी कास्ट लाइन पर बंट गई। ये अपूरणीय क्षति हुई। जाति केवल छात्रसंघ तक ही सीमित नहीं रही। रामजतन सिन्हा बताते हैं, ‘1969 का ही वो काल था जब केके दत्त वाइस चांसलर बनकर आए। तब पटना यूनिवर्सिटी की गरिमा को सबसे बड़ा झटका लगा। इन्हीं के शासनकाल में सीनेट, सिंडिकेट में बड़े पैमाने पर जाति आधारित नियुक्तियां हुई। पूरा यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन कायस्थ और भूमिहार दो गुट में बंट गया। बहाली, प्रमोशन में कायस्थ को तवज्जो मिलने लगी। इससे यूनिवर्सिटी को काफी नुकसान हुआ।’ जेपी आंदोलन के बाद कैंपस में बढ़ी धांधली पटना यूनिवर्सिटी को करीब से जानने और समझने वाले पटना यूनिवर्सिटी की असल बर्बादी की शुरुआत 1970 से मानते हैं। इनके मुताबिक, जिस जेपी क्रांति ने देश के छात्र आंदोलन को एक नया स्वरूप और देश को नई सरकार दी, उसी जेपी आंदोलन ने पटना यूनिवर्सिटी को तबाह कर दिया। पूर्व मंत्री रामजतन सिन्हा कहते हैं, ’जेपी मूवमेंट से पहले पटना यूनिवर्सिटी में अनफेयर एग्जाम के बारे में कोई सोच नहीं सकता था, लेकिन जेपी मूवमेंट के बाद लोगों ने यहां किताब खोलकर परीक्षा दी। जो कुव्यवस्था दूसरी यूनिवर्सिटी में थी वो सारी बीमारियां यहां पहुंच गई। जेपी के आह्वान पर लोगों ने क्लास का बहिष्कार किया। टीचिंग वर्क पूरी तरह बर्बाद हो गया।’ पूर्व VC रासबिहारी प्रसाद बताते हैं, ‘जेपी आंदोलन के बाद कई छात्र नेता मुख्यधारा की सियासत में आए। छात्रों को लगने लगा कि राजनीति में आगे बढ़ने के लिए छात्र राजनीति बड़ा प्लेटफॉर्म है। इसके बाद छात्रों ने पटना यूनिवर्सिटी के प्रिंसिपल पर हमला करना शुरू किया। चोरी, परीक्षा की तिथि को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन करने लगे। ये सब पटना यूनिवर्सिटी के पतन का बड़ा कारण बना।’ सरकार की दखलंदाजी ने VC की गरिमा को कम किया पटना यूनिवर्सिटी को तबाह करने में एक बड़ी भूमिका पॉलिटिकल दखलंदाजी को माना जाता है। 1970 से पहले यूनिवर्सिटी में किसी नेता की कोई पैरवी नहीं चलती थी। लेकिन 70 के दशक से यहां सरकार अपने पसंद से वीसी की नियुक्ति करने लगी। रास बिहार प्रसाद बताते हैं, ‘70 दशक के बाद एक भी कुलपति ऐसे नहीं आए जो इसकी गरिमा बढ़ा पाए, जिनके पास विजन हो। वो अलग-अलग आधार पर चुने गए। आदर्श कुलपति का सिद्धांत धराशायी होने लगा। शिक्षक, विद्यार्थियों का पॉलिटिकल लिंकेज बढ़ने लगा। नतीजा नियुक्ति , परीक्षा, एडिमिनिस्ट्रेशन में पॉलिटिकल दखलंदाजी बढ़ी। इसके बाद स्थिति अब तक नहीं सुधर पाई।’ टाइम बॉन्ड प्रमोशन नीति के कारण अच्छे शिक्षक नहीं मिले डॉ. आरवी राय, डॉ. जेएन चटर्जी, डॉ. केसी सिन्हा, डॉ. नागेंद्र नाथ, डॉ. वशिष्ठ नारायण ऐसे सैकड़ों शिक्षक हैं, जो पटना यूनिवर्सिटी के प्राउड हैं। इनकी या इनकी लिखी किताब आज तक पढ़े और पढ़ाए जा रहे हैं। इनके पढ़ाए स्टूडेंट्स देशभर में कामयाबी के पताका फहरा रहे हैं। सरकार की एक नीति ने ऐसे शिक्षक चुनने की परंपरा को ही खत्म कर दिया। प्रो. रास बिहारी प्रसाद बताते हैं, ‘1998 में सरकार टाइम बॉन्ड प्रमोशन नीति लेकर आई। इसे लागू करने वाला बिहार पहला राज्य था। इसके बाद हुआ ये कि योग्यता छोड़कर काम करने की अवधि के आधार प्रमोशन शुरू हो गया। 18 साल में रीडर 25 साल में प्रोफेसर बन गए। इससे शिक्षकों के विचार और सोच खत्म हो गई। टाइम बॉन्ड प्रमोशन ने प्रतिभा पर ताला लगा दिया।’ फैकल्टी, लैब, लाइब्रेरी और प्लेसमेंट PU में बचे ही नहीं पटना यूनिवर्सिटी में 18 साल से कार्यरत प्रो. गौतम शर्मा बताते हैं, ‘पटना यूनिवर्सिटी के लैब और लाइब्रेरी का मुकाबला कभी फॉरेन की यूनिवर्सिटी से की जाती थी। 9 बच्चे पर एक शिक्षक हुआ करते थे। जिस हॉस्टल की चर्चा कभी IAS, IPS, इंजीनियर और डॉक्टर देने के नाम से होती थी, वो आज सबकुछ तबाह है।’ आज न लैब है, न लाइब्रेरी है और न ही स्थायी शिक्षक हैं। पीएचडी के लिए शहर नहीं राज्य से बाहर पलायन करना पड़ रहा है। प्लेसमेंट सेल है, लेकिन पूरी तरह फंक्शनल नहीं है। एक दो कोर्स को छोड़कर किसी कोर्स में प्लेसमेंट नहीं हो रहा है। हम कैसे PU को सेंट्रल यूनिवर्सिटी के समकक्ष खड़ा करने का सपना देख सकते हैं। गौतम शर्मा बताते हैं, ‘एक यूनिवर्सिटी को आगे बढ़ने के लिए खासकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा प्राप्त करने के लिए ये जरूरी है कि वहां नए कोर्स हो, टेक्निकल कॉलेज हो। नए मेडिकल, बीएड, इंजीनियरिंग, बीएड कॉलेज हो, वो नहीं खुल पाया है।’ PU से निकली है ये नामचीन हस्तियां लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद, पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, फिल्म एक्टर व राजनेता शत्रुघ्न सिन्हा, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी, नौकरशाह राजीव गौवा, बिहार के चीफ सेक्रेटरी रहे अंजनी कुमार सिंह, आमिर सुबाहनी, पूर्व गृह सचिव राजीव गौवा पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे, पूर्व आईपीएस किशोर कुणाल। PU के गौरव रहे हैं ये शिक्षक यहां प्राचीन इतिहास और संस्कृति विभाग के प्रख्यात शिक्षक प्रो अल्तेकर, जाने माने इतिहासकार प्रो रामशरण शर्मा, प्रो सय्यद हसन अस्करी, प्रो केके दत्त, राजनीति शास्त्र के विद्वान प्रो मेनन, प्रो फिलिप्स और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बाथेजा जैसे शिक्षक पीयू की गरिमा में चार चांद लगाते थे। ——————— ये भी पढ़ें…. ‘कॉलेज नहीं आने पर लालू की बेटी को पड़ी डांट’:PMCH वालों को बिना इंटरव्यू के मिलती थी नौकरी, शताब्दी कार्यक्रम में कल आएंगी राष्ट्रपति बिहार का सबसे बड़ा अस्पताल पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (PMCH) कल यानी 25 फरवरी को 100 साल का हो जाएगा। शताब्दी समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आ रहीं हैं। अपने रुतबे को बरकरार रखते हुए PMCH आज दुनिया का दूसरा और देश का सबसे बड़ा अस्पताल बनने की कगार पर है। पूरी खबर पढ़िए
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